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________________ योग- शास्त्र ३६ एक योग से, ४. एक करण- तीन योग से, ५. एक करण दो योग से. और ६. एक करण - एक योग से । कोई गृहस्थ अवस्था - विशेष में तीन करण और तीन योग से भी त्याग करता है, किन्तु साधारण तौर पर नहीं । मतलब यह है कि गृहस्थ अपनी सुविधा, शक्ति और परिस्थिति के अनुसार स्थूल हिंसा आदि दोषों का त्याग करता है । जिस हिंसा को मिथ्या दृष्टि भी हिंसा समझते हैं वह — प्राणियों की हिंसा 'स्थूल हिंसा' कहलाती है । हिंसा विरति पंगुकुष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रस जन्तूनां हिंसां सङ्कल्पतस्त्यजेत् ॥ १६ ॥ पंगुपन, कोढ़ीपन और कुणित्व प्रादि हिंसा के फलों को देखकर विवेकवान् पुरुष निरपराध त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करे । टिप्पण - लोक में अनेक व्यक्ति लूले लंगड़े, कई कोढ़ी और कई टोंटे देखे जाते हैं । यह सब हिंसा के प्रत्यक्ष फल हैं । इन्हें देखकर बुद्धिमान मनुष्य पूर्ण हिंसा का त्याग न कर सके तब भी मारने की बुद्धि से निरपराध त्रस जीवों की हिंसा का अवश्य त्याग करे । आत्मवत्सर्वभूतेषु, सुख - दुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां, हिंसामन्यस्य नाचरेत् ॥ २० ॥ ऐसा विचार कर मनुष्य को हिंसा का क्योंकि जैसे अपनी हिंसा अपने को प्रिय भी अपनी हिंसा प्रिय नहीं हो सकती । अपने समान समस्त प्राणियों को सुख प्रिय है और दुःख श्रप्रिय, आचरण नहीं करना चाहिए । नहीं है, उसी प्रकार दूसरों को निरर्थिकां न कुर्वीत जीवेषु स्थावरेष्वपि । हिंसा महिसांधर्मज्ञः, काङक्षन्मोक्षमुपासकः ॥ २१ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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