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________________ योग- शास्त्र उसकी रचना नहीं की गई है । वह अनादि काल से ऐसा ही चला आ रहा है । ३.२ यहाँ शास्त्रकार ने सर्वज्ञवादियों के इसी अपौरुषेयवाद का निराकरण किया है । शास्त्र मात्र वर्णात्मक होते हैं और वर्णों की उत्पत्ति कंठ, तालु आदि स्थानों से तथा पुरुष के प्रयत्न से होती है । कभी कोई शब्द पुरुष के प्रयत्न के अभाव में अपने श्राप गूंजता हुआ नहीं सुना जाता । ऐसी स्थिति में अपौरुषेय शब्दों की कल्पना करना मिथ्या है । कोई भी आगम अपौरुषेय नहीं हो सकता । तर्क के लिए आगम को अपौरुषेय मान भी लिया जाय तो भी उसकी प्रमाणता सिद्ध नहीं होती । वचन की प्रमाणता वक्ता की प्रमाणता पर निर्भर है | जब वक्ता प्राप्त - प्रामाणिक होता है, तभी उसका वचन प्रामाणिक माना जाता है । अपौरुषेय श्रागम का वक्ता कोई प्राप्त पुरुष नहीं है, तो उसे प्रमाण भी किस प्रकार माना जा सकता है ? कुधर्म का लक्षण मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो, हिंसाद्यैः कलुषीकृतः । स धर्म इति वित्तोऽपि भवभ्रमणकारणम् ।। १३ ।। " मिथ्या दृष्टियों के द्वारा प्रवर्तित और हिंसा आदि दोषों से कलुषित धर्म, 'धर्म' के नाम से प्रसिद्ध होने पर भी संसार - भ्रमण का ही कारण है । सरागोऽपि हि देवश्चेद्, गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्मः स्यात्, कष्टं नष्टं हहा जगत् ॥ १४॥ जो राग आदि दोषों से युक्त है, वह भी देव हो जाय, ब्रह्मचारी न होने पर भी गुरु हो जाय और दयाहीन भी धर्म हो जाय, तब तो हाय ! इस जगत् की क्या दुर्दशा होगी ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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