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________________ द्वितीय प्रकाश यह चार अतिशय अरिहन्त देव में ही पाये जाते हैं । अतः वही सच्चे देव हैं। देवोपासना की प्रेरणा ध्यातव्योऽयमुपास्योऽयमयं शरणमिष्यताम् । अस्यैव प्रतिपत्तव्यं, शासनं चेतनाऽस्ति चेत् ।। ५ ॥ अर्हन्-परमात्मा ही ध्यान करने योग्य हैं। वही उपासना करने योग्य हैं। उन्हीं की शरण ग्रहण करना चाहिए। यदि तुम में चेतना है, समझदारी है, विवेक है-तो अरिहन्त प्रभु के शासन-प्रादेश को स्वीकार करो। कुदेव का लक्षण ये स्त्रीशस्त्राक्षसूत्रादि-रागाद्यङ्ककलङ्किताः । निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युन मुक्तये ॥ ६ ॥ नाट्याट्टहाससङ्गीताद्युपप्लवविसंस्थुलाः । लम्भयेयुः पदंशान्तं, प्रपन्नान् प्राणिनः कथम्?।। ७ ॥ जो राग के चिह्न स्त्री से युक्त हैं, द्वेष के चिह्न शस्त्र से युक्त हैं और मोह के चिह्न जपमाला से युक्त हैं, जो निग्रह और अनुग्रह करने में तत्पर हैं, अर्थात् किसी का वध करने वाले और किसी को वरदान देने वाले हैं, ऐसे देव मुक्ति के कारण नहीं हो सकते। . जो देव स्वयं ही नाटक, अट्टहास एवं संगीत आदि में उलझे हुए हैं । जिनका चित्त इन सब प्रामोद-प्रमोदों के लिए तरसता है, वे संसार के प्राणियों को शान्ति-धाम-मोक्ष कैसे प्राप्त करा सकते हैं ? टिप्पण .जिसमें रागभाव की तीव्रता होगी, वही स्त्री को अपने . समीप रखेगा। जिसमें द्वेष की वृत्ति विद्यमान होगी, वही शस्त्र धारण करेगा । जिसे विस्मृति आदि मोह का भय होगा, वही जपमाला हाथ में रखेगा। अतः स्त्री, शस्त्र और माला आदि क्रमशः राग, द्वेष और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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