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________________ २६४] अपरिग्रह साथ थोड़ी सी हानि स्वयं मोल लो-अर्थात् लाभ का एक निश्चित अंश स्वयं दान में लगा दो। फिर देखिए ! लाभ होने पर भी लोभ की वृद्धि न होगी । यदि आप आवश्यकताओं का लाभ चाहते हैं तो किसी के लाभ में अन्तरायभूत मत बनो। किसी दाता को दान देने से रोको मत । यदि कोई व्यक्ति आप के द्वार पर परिस्थिति वशात् कुछ मांगने चला आता है, और आप के पास वह वस्तु है तो उसे किसी भी मूल्य पर देने से इन्कार न करो । इन्कार करके आप अन्तराय कर्म का बंध करोगे तो भविष्य में लाभ न होगा । उस के द्वारा याचित वस्तु यदि आप न दे सको तो आप उस वस्तु का किसी अन्य से प्रबन्ध करा सकते हैं। यदि आप याचक के द्वारा याचित वस्तु उतने माप में नहीं दे सकते तो कम माप में यथा शक्ति दे सकते हैं । परन्तु इंकार तो कभी भी नहीं करना चाहिए । इस प्रकार अपरिग्रह व्रत को सार्थक किया जा सकता है । मम्मण सेठ ने जीवन में कोई भी अन्य पाप नहीं किया था परन्तु एकमात्र परिग्रह, लोभ के कारण वह मृत्यु के पश्चात् नरक गति का पथिक बना । कपिल कुमार राजा द्वारा 'इच्छित सुवर्ण' का वरदान दिए जाने के पश्चात् १ रत्ती से बढ़ते बढ़ते सम्राट् के समस्त राज्य की याचना करने के लिए तैयार हो गया । परन्तु तभी अपरिग्रह की भावना आते-आते वह लोभ का त्याग करके आवश्यकता पर आ पहुंचा तो उसे एक रत्ती सुवर्ण का संग्रह भी उचित न लगा । उसने कुछ भी त्याग नहीं किया, परन्तु त्याग की भावना अपरिग्रह से ही कपिल को केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । धन्य हैं अपरिग्रह व्रत तथा अपरिग्रह व्रत धारी ! अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएं हैं: शरीर, जिह्वा, घाण, चक्षु तथा श्रोत्र से सम्बन्धित पाँच विषयों - क्रमशः स्पर्श, रस, गंध, रूप, तथा शब्द में होने वाले Jain Education International ---- For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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