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________________ १३८] सम्यक् चारित्र शुद्ध व्यवहार तो आचारवान् व्यक्ति के लिए परम आवश्यक है। लोकोक्ति है--'यद्यपि शद्धं लोकविरूद्धं नो करणीयं, नाचरणीयं' अर्थात् शुद्ध आचार भी यदि लोक विरूद्ध प्रतीत होता है-- व्यवहार में अशोभनीय प्रतीत होता है, तो उस का आचरण नहीं करना चाहिए। जय वीयराय सूत्र में भी 'लोक विरूद्धच्चाओ' पाठ के द्वारा यही प्रतिज्ञा की जाती है, कि लोक में निंदनीय आचरण का मैं त्याग करता हूँ। व्यवहार में हो तो मानव के अन्दर के विचार झलकते हैं । Behaviour is a mirror, in which every one displays his image. व्यवहार एक ऐसा दर्पण है जिस में प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रतिमा (आकृति) को देखता है । __संस्कारों से संयम की ओर :-चारित्र की भावना मानव में वातावरण से उत्पन्न होती है। यह वातावरण पारिवारिक अथवा सामाजिक हो सकता है । पूर्व भव के संस्कार भी इस में बहुत महान कारण हैं। यदि बालक को माता पिता के द्वारा बाल्य काल से ही अच्छे संस्कार दिये जाएं, तो बालक क्या अपराधी रहेगा ? देश द्रोही बन सकेगा ? समान कंटक बन पाएगा? यदि बालक बाल्यावस्था से ही सुसंस्कारों से सिंचित हो जाए तथा बचपन में ही उसे सत्संगति मिल जाए तो वह अनायास ही संयम के मार्ग पर चल पड़ता है। धार्मिक शिक्षा भी संयमशील बनने में अत्यधिक सहायक होती है। शिक्षा से बालक आगे जा कर 'समाज रत्न बनता है, समाज खत्म नहीं। ____अकबर प्रतिबोधक आचार्य हीर सूरीश्वर जी म० के समय का प्रसंग स्मृति गोचरित हो रहा है। __ एक युवक प्रतिदिन उपाश्रय में सामायिक करने आता था। उसके विवाह में २ दिन शेष थे। एक दिन वह उपाश्रय में प्रातः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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