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________________ योग शास्त्र [१२७ आचरण से परिवृत व्यक्ति को भारे कर्मी या अनंतानुबंधी कषायी के रूप में भी जाना जा सकता है। जिस का जीवन उपर्युक्त गुणों की ओर जितना अग्रसर है, उतना वह लघुकर्मी या अल्प-कषायी कहा जा सकता है। यह भी चरित्र का ही एक अन्तरंग रूप है। व्रत नियम आदि से ही पंचमादि गुण स्थानों का अनुमान एक अनुमान मात्र है । वास्तविक रूप से अन्तरंग चारित्र अति आवश्यक है । जिसे निश्चय चारित्र कहा जा सकता है। __ निश्चय चारित्र :-यहां जीवन शुद्धि को भी चारित्र के नाम से अभिहित करने से पाठक चौंक उठे होंगे । उन को इतना कहना ही पर्याप्त होगा, कि यदि नियम व्रत आदि ही चारित्र के प्रयोजक हों, तो मक्खी के पंख को भी न डुबाने वाला (अभव्या) यति, २१वें देवलोक से आगे न जा कर, पुनः संसार परिभ्रमण के अन्नत जाल में क्यों उलझ जाता है ? वस्तुतः वहां अन्तरंग संयम या कषायदि की उपशांतता नहीं होती। आचार्य हरिभद्र की नैश्चयिक मान्यता में जैन धर्म का सार छिपा है । "कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव"-कषाय मुक्ति ही सच्चा चारित्र है। इस की प्राप्त के लिए ही द्रव्य चारित्र, देश विरति तथा सर्व विरति का विधान है। क्योंकि द्रव्य, भाव की वृद्धि के लिए ही होता है। निष्कर्ष यह है, कि देवगुरु धर्म की श्रद्धा, व्यवहार सम्यक्त्व है, तो सम, संवेग, निवेद, अनुकंपा तथा “आत्मा आदि षट्क की श्रद्धा, नैश्चयिक सम्यक्त्व हैं । सर्वज्ञोक्त वाणी का स्वाध्याय तथा श्रवण व्यवहार सम्यक्ज्ञान है तो सम्यक्दृष्टि तथा अनेकांत दृष्टि एवं समन्वय से पूत कोई भी ज्ञान या आत्मज्ञान ही सम्यक् ज्ञान है । विरति यदि व्यवहार चारित्र है, तो कषाय मुक्ति आभ्यंतर (नैश्चयिक) चारित्र है । साधक को व्यवहार की साधना करते हुए आभ्यंतर तथा निश्चय की प्राप्त के लिए प्रयत्न शील बनना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004233
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashobhadravijay
PublisherVijayvallabh Mission
Publication Year
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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