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________________ ज्ञान को साकार और दर्शन को निराकार भी कहा गया है। 'दर्शन' का स्पष्ट विवेचन करते हुए जैनागमों में कहा गया है कि सामान्य - विशेषात्मक पदार्थ के विशेष अंश का ग्रहण न करके केवल सामान्य अंश का जो निर्विकल्पक रूप से ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं।“ अर्थात् निर्विकल्पक रूप से जीव के द्वारा जो सामान्यविशेषात्मक पदार्थों की स्व- पर सत्ता का अवभासन होता है उसे 'दर्शन' कहते हैं 45 तात्पर्य यह है कि पदार्थों में सामान्य और विशेष दोनों ही धर्म एक साथ रहते हैं, किन्तु सामान्य धर्म की अपेक्षा से जो स्व- पर सत्ता का अवभासन होता है उसको दर्शन कहते हैं । इसका शब्दों द्वारा प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। दर्शन पदार्थों का आकार रहित सामान्य रूप से सत्ता - मात्र का ग्रहण करता है। इसमें यह 'काला' है, यह 'गोरा' है, यह 'छोटा' है, यह 'बड़ा' है - इस प्रकार का विकल्प पैदा नहीं होता। 'कुछ' है इस प्रकार पदार्थ की सत्ता ( मौजूदगी) मात्र प्रतिभासित होती है । अर्थात् यह निर्विकल्पक होता है । उक्त सविकल्पक और निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में से जैसा कि ऊपर कहा गया है बौद्ध तथा वेदान्त दर्शन केवल निर्विकल्पक को ही प्रत्यक्ष मानता है तो जैनदर्शन केवल सविकल्पक को ही, जबकि न्याय-वैशेषिक आदि सभी वैदिक दर्शन सविकल्पक और निर्विकल्पक दोनों को ही प्रत्यक्ष मानते हैं। न्याय-वैशेषिक मतानुसार प्रत्यक्ष के प्रकारान्तर से लौकिक और अलौकिक ये दो भेद भी माने गये हैं। अस्मदादि लौकिक पुरुषों का प्रत्यक्ष लौकिक प्रत्यक्ष है और वह इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि कारण सामग्री के होने पर ही सम्भव है, परन्तु योगियों के प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि कारण सामग्री की आवश्यकता नहीं है। योगीजन अपनी योगज सामर्थ्य से इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के बिना भी भूत, भविष्यत्, सूक्ष्म व्यवहित, विप्रकृष्ट सभी वस्तुओं को ग्रहण कर सकते हैं। उनका यह ज्ञान यथार्थ और साक्षात्कारात्मक निर्विकल्पक होता है। इस प्रकार लौकिक • और अलौकिक दोनों प्रकार के निर्विकल्पक ज्ञान और उनकी कारण सामग्री के विषय में प्रायः सभी निर्विकल्पकवादी एकमत हैं । इस प्रकार न्याय, वैशेषिकादि प्रायः सभी वैदिक दर्शनों ने इन्द्रिय और पदार्थ सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष माना है और इसी प्रकार इन्द्रियों से परे, जहाँ इन्द्रियों की पहुँच नहीं है, ऐसे ज्ञान को परोक्ष भी कहा है अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रियों के व्यापार से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है ।" और जो इन्द्रियों के व्यापार से रहित है वह परोक्ष है। यहाँ 'अक्ष' शब्द का अर्थ इन्द्रिय लिया गया है, किन्तु प्रत्यक्ष का यह लक्षण जैनदर्शन के अनुसार समीचीन नहीं है क्योंकि इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष तत्त्वाधिगम के उपाय :: 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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