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________________ इसके साथ गुण-गुणी का भेद करना, पर्याय अंश का जीव से सम्बन्ध बताना, यह व्यवहार अंश है और जो क्रोधादिक विकार अबुद्धिगत हैं, अनुभव में नहीं आ पा रहे हैं, उनको कहना अनुपचरित है । इसप्रकार यह सब अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। आचार्य देवसेन ने भी इसी प्रकार इस नय का लक्षण किया है - संश्लेषसहित वस्तु के सम्बन्धको विषय करने वाला अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे— जीव का शरीर आदि । 7 यद्यपि जीव का स्वचतुष्टय" भिन्न है और शरीर का स्वचतुष्टय भिन्न है, तथापि जीव और शरीर का संश्लेषसम्बन्ध है । जीव जिस शरीर को धारण करता है, संकोच या विस्तार गुण के कारण उसके आत्मप्रदेश उस शरीर प्रमाण या आकाररूप हो जाते हैं। उपचरित असद्भूत व्यवहारनय" - ' क्रोधादिक विकारभाव जीव के हैं' यह असद्भूत व्यवहारनय का उदाहरण है, जिसका विवेचन पहले किया जा चुका है, किन्तु भृकुटी चढ़ाना, मुख का विवर्ण होना, शरीर में कम्पन होना इत्यादि क्रियाओं को देखकर क्रोधादिक को बुद्धि गोचर मानना उपचरित होने से प्रकृत में 'क्रोधादिक बुद्धिजन्य हैं' यह मान्यता उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। ये 'बुद्धिगत क्रोधादिक भाव जीव के हैं' यह मान्यता इस नय का विषय है। ये जीव के परिणमन है, इस कारण जीव के कहे गये हैं, लेकिन हैं ये औपाधिक (कर्मोपाधिजन्य) भाव, जीव के स्वतः सिद्ध स्वरूप नहीं है, इस कारण से ये असद्भूत व्यवहारनय के विषय हैं। क्रोधादिक भाव केवल जीव के नहीं हैं। जीव के परिणमन हैं, पर जीव के निमित्त से नहीं हुए हैं। यदि स्वयं जीव के निमित्त से ये विकारभाव होते हों तो इन्हें शाश्वत रहना चाहिए । 'ये विकारभाव जीव के हैं, इतना अंश तो 'असद्भूत' है और क्रोधादिक भावों को समझकर ये जीव के हैं; इसप्रकार उपचार या आरोप करना, यह उपचार अंश है। इसप्रकार यह सब उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है । आचार्य देवसेन ने इस नय का लक्षण इस प्रकार किया है- 'संश्लेषण सम्बन्ध रहित भिन्न वस्तुओं का परस्पर में सम्बन्ध ग्रहण करना उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है ।° जैसे- देवदत्त का धन । ' तात्पर्य यह है कि देवदत्त भिन्न सत्तावाला द्रव्य है और धन भिन्न सत्ता वाला द्रव्य है। इन दोनों का संश्लेषण सम्बन्ध भी नहीं है, किन्तु स्व-स्वामी सम्बन्ध है । देवदत्त धन का स्वामी है और धन उसका स्व है । देवदत्त को अधिकार है कि वह अपने धन को तीर्थ-वन्दना, जिनमन्दिर निर्माण तथा दान आदिक धर्मकार्यों में व्यय 274 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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