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________________ भोग) में ही रमा है, उनको अपना माना है, किन्तु स्व (शुद्धात्मस्वरूप) को न तो कभी जाना है और न जानने का प्रयास ही किया है। इसकी समझ में यह सिद्धान्त कभी आया ही नहीं कि स्व स्व है, पर पर है, स्व पर नहीं, पर स्व नहीं। यह सदा परदृष्टि ही रहा, स्वदृष्टि कभी हुआ ही नहीं। यदि यह स्वदृष्टि हो जाता, भेदविज्ञानी बन जाता तो संसार परिभ्रमण से मुक्त हो जाता। किन्तु इसने अब तक तो केवल काम, भोग सम्बन्धी बन्ध की कथा को ही सुना है, उससे ही परिचय किया है और वही इसके अनुभव में आयी है, परपदार्थों से भिन्न एक शुद्धात्मा की कथा न तो कभी सुनी है, न इसके परिचय में आयी है और न ही अनुभव में आयी है; क्योंकि अनादि से जिसे सुना है, वही परिचय में आएगी और जो परिचय में आएगी उसी का तो अनुभव होगा, उससे भिन्न स्वरूप का अनुभव कैसे हो सकता है, जिसे कभी सुना ही नहीं वह परिचय में कैसे आ सकती है? और जो परिचय में नहीं आयी है उसके अनुभव में आने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इसी के परिणाम स्वरूप यह भव-भवान्तर में सांसारिक दुःखों का पात्र बना। अब तक इसने अज्ञानतावश विकारी विभाव भावों (राग-द्वेषादि) को ही अपनाया है, स्वभाव भावों (शुद्धात्मभाव) से सदा दूर हटता रहा है। यही इसके परिभ्रमण का कारण है। इससे मुक्त होने के लिए जैन दार्शनिकों ने आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चय और व्यवहार नयों तथा उनके भेद-प्रभेदों का सुव्यवस्थित विवेचन किया है। अध्यात्म प्रतिपादक निश्चय और व्यवहारनय जैसा कि ऊपर कहा गया है सैद्धान्तिक दृष्टि से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ही मूलनय हैं जो सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करते हैं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चय और व्यवहारनय ही मूलनय हैं, क्योंकि अध्यात्म का लक्ष्य है शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्ति और वह निश्चय के बिना .सम्भव नहीं है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का दर्शन इसी से होता है। इसी से आचार्य देवसेन ने आलापपद्धति में लिखा है-'अब अध्यात्म भाषा के द्वारा नयों का कथन करते हैं। और ऐसा लिखकर निश्चयनय और व्यवहारनय तथा उनके भेद-प्रभेदों का विवेचन किया है। इस कथन से तथा अध्यात्मग्रन्थों में इन दोनों नयों का विवेचन किया जाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों नय अध्यात्म दृष्टि से सम्बद्ध हैं। अध्यात्म में वस्तु-विचार इन्हीं के द्वारा किया जाता है। इसी से आचार्य देवसेन ने निश्चयनय और व्यवहारनयों को ही मूलनय कहा है। श्री माइल्ल धवल ने भी नयों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण तथा उनके भेद-प्रभेद :: 253 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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