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________________ इस प्रकार की विशेष आकार वाली प्रतीति को विशेष कहते हैं। यही व्यावृत्त प्रत्यय कहलाता है। वह सामान्य दो प्रकार का है - तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य । 1 प्रत्येक व्यक्ति में सदृश (समान) परिणाम को तिर्यक्- सामान्य कहते हैं 32 अथवा एक कालवर्ती व एक क्षेत्रवर्ती अनेक पदार्थों में रहने वाली एकता या समानता को तिर्यक् सामान्य कहते हैं । जैसे- खण्डी, मुण्डी, चितकबरी, श्याम, लाल आदि अनेक गायों में रहने वाला एक 'गोत्व' सामान्य तिर्यक् सामान्य है इसे सादृश्य - सामान्य भी कहते हैं, क्योंकि इसमें 'यह भी गौ है', 'यह भी गौ है', 'यह भी गौ है' इस प्रकार का सादृश्य प्रत्यय प्राप्त होता है। एक कालवर्ती तथा एक क्षेत्रवर्ती अनेक पदार्थों में रहने वाली एकता या समानता भी तिर्यक् सामान्य है। यह अनेक द्रव्यों में तिरछा होकर व्याप्त रहने के कारण तिर्यक् - सामान्य कहलाता है। पूर्व और उत्तर पर्यायों में समान रूप से रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता - सामान्य कहते हैं; जैसे - कडे, कंकण आदि पर्यायों में समान रूप से रहने वाला स्वर्ण द्रव्य अथवा स्थास, कोश, कुशूल आदि घट की पर्यायों में समान रूप से रहने वाली मिट्टी ऊर्ध्वता सामान्य है। अर्थात् - जो त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों में व्याप्त होकर साथ रहता है, ऐसे द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं; जैसे - एक चित्र ज्ञान एक साथ होने वाले अपने अन्तर्गत अनेक नील, पीतादि आकारों में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार ऊर्ध्वता सामान्य रूप जो द्रव्य है, वह काल-क्रम से होने वाली पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है। इसी प्रकार अनेक कालवर्ती व एक क्षेत्रवर्ती अनेकों क्रमवर्ती अवस्थाओं में अनुस्यूत एक द्रव्य ऊर्ध्वता - सामान्य है; जैसे आगे पीछे प्रकट होने वाली बालक, युवा, वृद्ध आदि अनेक अवस्थाओं में अनुस्यूत एक मनुष्यत्व; क्योंकि यहाँ भी 'यह भी वही मनुष्य है, जो कि पहले बच्चा था' इस प्रकार के एकत्वप्रत्यय की प्राप्ति हो रही है । यह अपनी काल - क्रम से होने वाली क्रमिक पर्यायों में ऊपर से नीचे तक व्याप्त रहने के कारण ऊर्ध्वता - सामान्य कहलाता है। यह जिस प्रकार अपनी क्रमिक पर्यायों को व्याप्त करता है उसी तरह अपने सहभावी गुण और धर्मों को भी व्याप्त करता है । विशेष भी दो प्रकार का है - 1. तिर्यक् विशेष और 2. ऊर्ध्वता - विशेष । एक काल व एक क्षेत्रवर्ती अनेक विभिन्न पदार्थों में रहने वाली व्यक्तिगत पृथक्ता तिर्यक् विशेष है; जैसे- अनेक गौओं में रहने वाली अनेकता, क्योंकि 'यहाँ जो यह गाय है वही यह दूसरी नहीं है' इस प्रकार व्यतिरेकी - प्रत्यय प्राप्त होता है। 224 :: जैनदर्शन में नयवाद Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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