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________________ से सोचना, कहना तथा करना और दूसरे के विचारों और कथन की उपेक्षा करना। वास्तव में जब-जब विवाद, संघर्ष, कलह और बड़े-बड़े युद्ध हुए, वे सब एकांगी दृष्टिकोण या विचारधाराओं से ही हुए। आज विश्व की अशान्ति और बर्बरता का एक मात्र कारण है तो यही है कि दूसरों के विचारों के प्रति असहिष्णुता और उनके मन्तव्यों का अनादर या उपेक्षा करना। अत: जैनदर्शन का अनेकान्त और स्याद्वाद सिद्धान्त यही बतलाता है कि केवल अपने विचारों और सिद्धान्तों को महत्त्व न देकर दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णुता रखना और दूसरों के सिद्धान्तों का अनादर न करना, जब हम स्वीकार कर लेते हैं तो सहज ही संघर्ष, वैमनस्य, कलह और युद्ध कम हो जाते हैं या बिल्कुल ही समाप्त हो जाते हैं। सहिष्णुता, उदारता, सामाजिक संस्कृति, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और अहिंसा-ये एक ही सत्य के अलग-अलग नाम हैं। असल में यह भारतवर्ष की सबसे बड़ी विलक्षणता का नाम है, जिसके अधीन यह देश एक हुआ है और जिसे अपनाकर सारा संसार एक हो सकता है। अनेकान्तवाद वह है जो दुराग्रह नहीं करता। अनेकान्तवाद वह है, जो दूसरों के मतों को भी आदर से देखना और समझना चाहता है। अनेकान्तवाद वह है, जो समझौतों को अपमान की वस्तु नहीं मानता। भारत में अहिंसा के सबसे बड़े प्रयोक्ता जैनाचार्य हुए हैं, जिन्होंने मनुष्य को केवल वाणी और कार्य से ही नहीं, प्रत्युत विचारों से भी अहिंसक बनाने का प्रयत्न किया। किसी भी बात पर यह मानकर अड़ जाना कि 'यही सत्य है तथा बाकी लोग जो कुछ कहते हैं, वह सबका सब झूठ और निराधार है,' विचारों की सबसे ' भयानक हिंसा है। मनुष्य को इस हिंसा के पाप से बचाने के लिए ही जैन चिन्तकों ने अनेकान्तवाद का सिद्धान्त निकाला, जिसके अनुसार प्रत्येक सत्य के अनेक पक्ष माने गये हैं तथा यह सही भी है कि हम जब जिस पक्ष को देखते हैं तब हमें वही एक पक्ष सत्य जान पड़ता है। अनेकान्तवादी दर्शन की उपादेयता यह है कि वह मनुष्य को दुराग्रही होने से बचाता है। उसे यह शिक्षा देता है कि केवल तुम्ही ठीक हो, ऐसी बात नहीं है; किन्तु वे लोग भी अपनी दृष्टि से सत्य कह रहे हैं जो तुम्हारा विरोध करते हैं। भाषा की दृष्टि से अनेकान्तवादी मनुष्य स्याद्वादी है; क्योंकि वह यह नहीं कहता कि 'यही सत्य है।' सदैव यह कहना चाहता है कि किसी अपेक्षा से वह भी सत्य है।' भारतीय साधकों की अहिंसा भावना स्याद्वाद में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँची; क्योंकि यह दर्शन मनुष्य के भीतर बौद्धिक अहिंसा को प्रतिष्ठित करता है। संसार में जो अनेक मतवाद फैले हुए हैं, उनके भीतर सामंजस्य को जन्म देता है तथा वैचारिक भूमि पर जो कोलाहल और कटुता उत्पन्न होती है, उससे तत्त्वाधिगम के उपाय :: 165 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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