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________________ साधन ऐसा होना चाहिए जो साध्य का अविनाभावी रूप से सुनिश्चित हो। अर्थात् साध्य के होने पर ही हो और साध्य के न होने पर न हो। ऐसा साधन ही साध्य की ठीक प्रतीति करता है। इसीलिए अकलंक देव ने साधन को 'साध्याविनाभावाभिनिबोधक लक्षण' कहा है। अर्थात् साध्य के साथ सुनिश्चित अविनाभाव ही साधन का प्रधान लक्षण है। इसी को हेतु भी कहते हैं।34 अन्यथानुपपत्ति भी इसी का नाम है ।135 'अन्यथा' अर्थात् साध्य के अभाव में साधन की 'अनुपपत्ति' अर्थात् अभाव को अन्यथानुपपत्ति कहते हैं। अविनाभाव भी वही कहलाता है अविनाभाव का पदच्छेद (अ+विना+भाव) पूर्वक इस प्रकार अर्थ किया जा सकता है-अविनाभाव अर्थात् विना/यानि साध्य के अभाव में, अ-यानि साधन का न, भाव यानी होना अर्थात् साध्य के अभाव में साधन का न होना अविनाभाव है। अविनाभाव, अन्यथानुपपत्ति, व्याप्ति-ये सब एकार्थ वाचक शब्द हैं। अविनाभाव सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं और सहभावनियम तथा क्रमभाव नियम को अविनाभाव कहते हैं। यह अविनाभाव ही अनुमान का मूलाधार है। सहभावी रूप, रसादि तथा वृक्ष और शिंशपा आदि व्याप्य-व्यापक भूत पदार्थों में सहभाव नियम होता है। 37 नियतपूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती कृत्तिकोदय और शकटोदय में तथा कार्य-कारण भूत अग्नि और धूम आदि में क्रमभाव नियम होता है।38 अतः जो साध्य के अभाव में न रहता हो और साध्य के सद्भाव में ही रहता हो वही साधन सच्चा साधन या हेतु है। वही साध्य की सिद्धि करने में समर्थ है। ऐसे साधन से ही साध्य के ज्ञान को अनुमान प्रमाण कहते हैं। - इस प्रकार जैनदर्शन में अनुमान के लक्षण के साथ हेतु का निर्दोष लक्षण किया गया है। - हेतु-लक्षण-जैनदर्शनमान्य हेतु के उक्त लक्षण के विषय में जैनेतर दार्शनिकों के विभिन्न मत उपलब्ध होते हैं। इस विषय में बौद्धों का कहना है कि हेतु का जो 'साध्याविनाभाव' लक्षण किया गया है, वह ठीक नहीं है। हेतु का एक लक्षण नहीं है, किन्तु उसके तीन लक्षण हैं-1. पक्षधर्मत्व, 2. सपक्षसत्व और 3. विपक्षव्यावृत्ति। हेतु को पक्ष का धर्म होना चाहिए, सपक्ष में रहना चाहिए और विपक्ष में नहीं ही रहना चाहिए। जिसमें ये तीनों लक्षण पाये जाते हैं, वही हेतु सम्यक् हेतु है। जैसे इस पर्वत में अग्नि है; क्योंकि यह धूम वाला है। जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि अवश्य होती है, जैसे रसोईघर। और जहाँ अग्नि नहीं होती है वहाँ धूम भी नहीं होता, जैसे तालाब। इस अनुमान में 'पर्वत' पक्ष है। 'अग्नि' साध्य है, 'धूमवाला' हेतु है, रसोईघर सपक्ष है और तालाब विपक्ष है। जहाँ साध्य की सिद्धि की जाती है उसे पक्ष कहते हैं। जैसे ऊपर के अनुमान में पर्वत तत्त्वाधिगम के उपाय :: 113 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004231
Book TitleJain Darshan me Nayvad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhnandan Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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