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________________ 84 भी राजपुरुष के लिए अपनी किसी भी भावना का प्रदर्शन करना योग्य नहीं होता। अतः संयत स्वर में रामचंद्रजी ने कहा, "आपने मुझे यह विषय ज्ञात कराया, यह बडी अच्छी बात है।" गुप्तचरों के जाने के बाद राम विचार करने लगे, "राजधर्म कितना गहन, कितना जटिल है, सर्वसत्ताएँ तो शासक के स्वाधीन होती हैं, फिर भी वह अंत में होता है जनता का सेवक ही ! भक्त जिस प्रकार अपने आराध्य देव को कुपित नहीं कर सकता वैसे, शासक भी जनता को नाराज़ नहीं कर सकता। सीता, सती है, निष्कलंक है, किंतु उनके कारण मेरी अपकीर्ति हो रही है, जिसे मैं व्यक्तिगत स्तर पर तो सहन कर सकता हूँ किंतु उज्जवल सूर्यवंश के ऊपर दोषारोपण का सहना बड़ा कठिन है।" प्रमुख विज धैर्यशाली था। उस अधिकारी ने कहा- “प्रभु ! सामान्य जनगण द्वारा चर्चित प्रवाद से अघटित भी घटना घटित कहलवाती है, ऐसा विद्वानों का मानना है। सांप्रत जानपदों व नगरों में यह प्रवाद चल रहा है - कि सीताजी का अपहरण करके रावण उन्हें अपने आवास में ले गया था। सीताजी, वहाँ दीर्घ समय रह चुकी है। सीता ने रावण का प्रेम स्वीकार किया हो या अस्वीकार किया हो, परंतु स्त्रीलंपट रावण बलशाली था। उसने साम, दाम, दंड, भेद इन नीतियों का प्रयोग कर उन्हें मनाने में यश प्राप्त किया हो..... | अथवा स्वेच्छा व अनिच्छा का विचार किए बिना उसने बलपूर्वक सीता का भोग लेकर उन्हें दूषित किया हो... | लोक उक्ति भी प्रसिद्ध है - स्त्रियाश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम् । देवोऽपि न जानाति कुतो मनुष्यः ।। गुप्त वेशधारी राम की नगर परिक्रमा स्त्रीचरित्र और पुरुषका भाग्य कभी भी परिवर्तित हो सकता है। उनके विषय में साक्षात् देव भी अनभिज्ञ हैं, तो मानव क्या जान सकता है। यद्यपि यह प्रवाद असत्य है, परंतु तर्कसंगत है। अतः आप इस प्रवाद को सहन मत कीजिये व आपकी विमलकीर्ति एवं सूर्यवंश पर दोषारोपण मत होने दीजिये।" गुप्तचरों ने अपने ये अभिप्राय व्यक्त किए। एक शाम को रामचन्द्रजी गुप्त रुप से राजप्रासाद से बाहर निकले, व नगर में भ्रमण करने लगे। चौराहे पर खडे होकर जनसामान्य, सीताजी के विषय में चर्चा कर रहे थे। वे कह रहे थे, यह मान लिया कि अबला सीता की अनिच्छा होते हुए भी रावण ने उनका अपहरण किया, परंतु यह कैसे मान सकते हैं कि उन पर अनुरक्त रावण ने इतने दीर्घ समय तक अपने आप पर संयम रखकर उनके सतीत्व को अबाधित रखा हो ! वैसे भी अनीति का दूसरा नाम है रावण ! यह भी हो सकता है कि सीता के साथ रावण ने बलपूर्वक कुछ अनैतिक कर्म किया हो। फिर भी राम को देखिये... उन्हें अभी भी प्रासाद में रखा है - कहते ही है.... कामातुराणां न भयं न लज्जा। सीता के प्रेम में पतित राम को न लोकापवाद की लज्जा है, न लोकक्षोभ का भय । यह प्रवाद सुनकर दुःखी रामचंद्र लौटकर प्रासाद आये व गुप्तचरों को पुनः नगर परिक्रमा के लिए भेजे। अपने गुप्तचरों की बात सुनकर राम बहुत दुःखी हो गए। फिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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