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________________ 58 है और आप यहाँ सुखों का उपभोग कर रहे हैं? भूतकाल में सीता की शोध में जुड़ जानेका वचन क्या आपने नहीं दिया था? क्या आपकी स्मरणशक्ति कुंठित हो गई है ? शीघ्र उठकर हमारे साथ चलिये, अन्यथा आपको साहसगति विद्याधर की तरह परलोकयात्रा पर भेजने के लिए मैं विवश हो जाऊँगा।" सुग्रीव ने लक्ष्मण के चरणस्पर्श कर क्षमायाचना की व सत्वर अपने सुभटों को सीता की शोध हेतु निकलने की आज्ञा दी। वे द्वीप, सागर, पर्वत, भूगर्भ में सीता के शोध के लिए रवाना हुए। सुग्रीव स्वयं कंबुद्वीप पहुँचे । दूर से सुग्रीव को आते देखकर रत्नजटी ने विचार किया कि क्या रावण ने मेरी विद्याओं का हरण करने के पश्चात् सुग्रीव को मेरी हत्या के लिए भेजा है? रत्नजटी के भय का कारण यह था कि पहले सुग्रीव रावण के पक्ष में था। इतने में तो सुग्रीव ने उनके समीप आकर कहा, "मुझे आते हुए देखकर आप मेरे स्वागत के लिए उठे क्यों नहीं? आकाशगामी विद्या के ज्ञाता आज आलस्य का शिकार कैसे बने ?" उत्तर में रत्नजटी ने कहा, "न मैं आलस्य का शिकार बना हूँ, न अपना आतिथ्य धर्म भूला हूँ, परंतु राम की पत्नी सीता का अपहरण कर जब रावण पुष्पक विमान में लंका जा रहा था, तब सीता को उससे मुक्त करने के लिए मैंने रावण से युद्ध किया, तब उसने मेरी समस्त विद्याएँ मुझसे छिन ली। तब से मुझपर भय का साया सतत मँडरा रहा है। इस भय से कैसे मुक्ति पाऊँ इन्हीं विचारो से सांप्रत त्रस्त हो चूका हूँ। अतः आपको आते हुए देखकर मैं खडा नहीं हुआ, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।" सुग्रीव द्वारा रत्नजटी को राम के पास लाना उदारहृदय सुग्रीव ने उन्हें क्षमा किया। दोनों सत्वर रामचंद्रजी के समीप आ गए। रत्नजटी ने राम को प्रणाम किया व सीताहरण की समस्त हकीकत उन्हें कह दी। राम ने उन्हें आनंदपूर्वक आलिंगन दिया। अपहृत सीता की मनोदशा के बारे में राम ने बारंबार रत्नजटी से प्रश्न किए। उन्होंने भी सीता के क्रोध, निराशा एवं रुदन का विस्तृत वर्णन राम के समक्ष किया। सीता के अपहरण का समाचार मिलते ही सीता के अनुज भामंडल एवं पाताललंका के अधिपति विराध, अपनी अपनी सेनाएँ लेकर रामचंद्रजी के पास आए। राम ने सुग्रीव, भामंडल आदि से पृच्छा की कि, “राक्षस रावण की लंकापुरी यहाँ से कितने अंतर पर स्थित है ?" सुभटों ने कहा, "लंका चाहे सुदूर हो या समीप, इससे कार्यसिद्धि नहीं होनेवाली, क्योंकि बलशाली मायावी रावण के समक्ष हम तृणसमान हैं। हममें से कोई भी रावण को हराने के लिए सक्षम नहीं है।" राम ने कहा, "जय, पराजय तो दूर की बात है, आप केवल इतना ही बता दें कि लंका कहाँ है ? रावण के सुभटों को ही क्या, रावण को भी परास्त करने के लिए पर्याप्त शक्ति अकेले मेरे For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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