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________________ 29 रहता है। विष तो केवल एक बार प्राणनाश करता है। विषयसुख का विष तो जन्मजन्मांतर तक प्राण नाश कराता है। अतः देहपतन हो जाएँ, उसके पूर्व क्यों न मैं कठोर मोक्ष साधना के माध्यम से कर्मों को चूर्ण चूर्ण करूँ?" दशरथराजा ने एक ही बार उस पर नखशिखांत दृष्टि डाली! किसी समय धसमसते यौवन से परिपूर्ण शरीर अब एक कंकाल बन चुका था। पाँचो ज्ञानेंद्रियों की ज्योति क्षीण हो गई थी। सारे केश श्वेत हो चुके थे। शरीर में मांस एवं रुधिर का नामोनिशान तक नहीं था। केवल अस्थियाँ, उभरी हुई नसें और चर्म से ढंका वह शरीर देखकर दशरथ के मन में वैराग्य जागृत हुआ। वे विचार करने लगे। जन्म से मृत्यु तक अविरत चलती जीव की यात्रा में देह को क्या क्या नहीं भुगतना पड़ता है ? आज इस वृद्ध कंचुकी की जो अवस्था है, वह कल मेरी होगी? इसके पश्चात् क्या ? इस प्रकार वे वैराग्यभाव से संपन्न बने। पुण्यशाली आत्माओं को सफल पुरुषार्थ करने के लिए सुयोग प्राप्त होते हैं। एक दिन सत्यभूति मुनि अयोध्या की सीमा के बाहर पधारे। वे चार ज्ञानों के ज्ञाता थे। यह शुभसमाचार विदित होते ही दशरथ राजा सपरिवार वंदन करने गए। सीता प्राप्त न होने के कारण शोकसंतप्त बने युवराज भामंडल एवं निराश बने राजा चंद्रगति भी स्थावर्त पर्वत से पुनः लौटते समय वहाँ पहुँचे । राजा दशरथ एवं राजा चंद्रगति देशना सुनने के लिए यथास्थान बैठ गए। पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् । "यह दुष्टचक्र कब तक चलता रहेगा? जन्म मृत्यु का दृश्य मानव रोज देखता है, फिर भी भौतिकसुख व विषयसुख के पीछे लगा। सत्यभूति के प्रवचन सुनकर भामंडल का बेहोश होना DILIP SONI 1997 Weih Edi lem For Perse v ate Use Only Norg
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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