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________________ अपने पुत्रों का पराक्रम और पिता से मिलन देखकर सीता आनंदविभोर बनी। उसके पश्चात् वह विमान में बैठकर पुंडरीकपुरी चली गई। यहाँ राम को वज्रजंध का भी परिचय हुआ। उन्हें आलिंगन देकर राम ने कहा, “आप तो मेरे लिए भामंडल के समान हो। मेरी अनुपस्थिति में आपने मेरे पुत्रों की इतनी उत्तम देखभाल की है और इन्हें उच्च श्रेणी का वीरत्व प्रदान किया है। मैं निरंतर आपका ऋणी रहूँगा।" 30 | लक्ष्मण, सुग्रीव, बिभीषण, हनुमान, अंगद आदिने मिलकर राम से विनति की कि, “आपकी विरहव्यथा से पीडित सीता दीर्घ समय तक परदेश में रही हैं। अब अपने दो पुत्रों के विरह से तो वे एकदम दुःखी बनेंगी। अतः आपश्री आज्ञा दें, तो हम स्वयं प्रस्थान कर उन्हें अपने साथ लेकर शीघ्र ही लौटेंगे। अन्यथा पति व पुत्रों के विरह से उनकी मृत्यु हो सकती है।" राम ने उनसे कहा, "मुझे ज्ञात है कि सीता के विषय में जो लोकापवाद हुआ, वह मिथ्या है सीता तो महासती है। अपितु मेरी इच्छा है कि अयोध्या में पुनः प्रवेश करने के पूर्व सीता जनसमुदाय के समक्ष अग्निदिव्य करें। अग्निदिव्य से शुद्ध बनी सीताजी का मेरे संग गृहवास निर्दोष रहेगा।" राम के आदेशानुसार सुग्रीव ने अयोध्या के बाहर विशाल मंडप बंधवाया। राम की आज्ञा से सुग्रीव पुंडरीकपुर पधारे। सीता को प्रणाम कर वे कहने लगे, मेरे स्वामी ने आपके लिए पुष्पक विमान भिजवाया है। उसमें बिराजमान होकर आप दिव्य हेतु अयोध्या पधारिये सीताजी ने कहा, "निबिड़ कानन में मेरे त्याग से दशरथनंदन को जो दुःख हुआ था, वह अभी तक शांत नहीं हुआ है। अब पुनः अयोध्या आकर मैं उनके लिए एक नया दुःख क्यों निर्माण करू ? क्योंकि लोग कहेंगे, पहले तो जंगल में त्यागकर सज़ा की और अब दिव्य करवा रहे हैं। पानी पीकर घर पुच्छना क्या उचित माना जाता है।" सुग्रीव नम्रतापूर्वक बोले, "राम को तो ज्ञात है कि आप विशुद्ध महासती है, अपितु जनसमुदाय के संतोष के लिए यह दिव्य करवाया जा रहा है। आप क्रोधित न बनें। रामचंद्रजी अयोध्या में आपके पुनरागमन की प्रतीक्षा कर रहें हैं ?" सुग्रीव के मनाने के बाद सीताजी अयोध्या आने के लिए तैयार हो गई। विमान में बैठकर वे अयोध्या के बाहर महेंद्र नामक उद्यान में Jain Education International पुष्पक विमान में राम-लक्ष्मण ने अपने साथ साथ लव-कुश को बिठाया व अयोध्यानगरी पहुँचे। अयोध्यानगरी में लव-कुश को देखने के लिए जनसमुदाय आया, उन्हें देखकर लोग आश्चर्यचकित होकर उनकी प्रशंसा करने लगे। विमान प्रासाद के प्रांगण में पहुँचा, सब नीचे उतरें। प्रासाद में राम ने महोत्सव मनाया। सीताद्वारा अग्निदिव्य व दीक्षा उतरी। लक्ष्मण व अन्य राजाओं ने आकर उनसे कहा, “आप अयोध्या के प्रासाद में पधार कर धरती को पावन करें।" परंतु सीताजी ने कहा, “अब अग्निदिव्य के उपरांत ही नगर एवं प्रासाद में प्रवेश करूँगी। अन्यथा यह लोकापवाद शांत नहीं होगा।" राजाओं ने राम से मिलकर सीताजी की प्रतिज्ञा के विषय में जानकारी दी। राम ने सीताजी से मिलकर कहा, "रावण के नगरी में इतने दिन रहने के पश्चात् भी रावण ने आपकी इच्छा या अनिच्छा को तनिक भी महत्व दिये बिना आपके साथ अपवित्र संबंध रखे थे अथवा नहीं, इस विषय में लोग अभी भी साशंक है अतः उनका संशय दूर कराने के लिए आपको अग्निदिव्य करना होगा" 95 सीताजी ने हँसकर उत्तर दिया- “आप जैसे सज्जन व विद्वान महापुरुष ने मेरे अपराध को जाने अथवा परखे बिना मुझे देशनिकाला दे दिया। मेरा निरपराधित्व सिद्ध करने के लिए मुझे एक अवसर भी नहीं दिया। आपने मेरे अपराध की जाँच किए बिना ही मुझे दंड दिया और आज इतने वर्ष बीतने के बाद आप मुझ से दिव्य करवा रहे हैं, यह आश्चर्य है मैं तो आर्यनारी हूँ आपका आदेश कैसे ठुकरा सकती हूँ । आपकी इच्छानुसार जब आप कहेंगे, तब दिव्य के लिए मैं तैयार हूँ।" रामचंद्रजी ने कहा, आप संपूर्णतः दोषरहित हैं, यह मुझे ज्ञात है। । किंतु लोगों के हृदय में उत्पन्न हुए काल्पनिक दोष की निवृत्ति के लिए आपसे दिव्य करवा रहा हूँ।" सीताजी ने कहा, "आपके आदेशानुसार पाँचों दिव्य करने के लिए मैं तैयार हूँ । आपकी इच्छा हो, तो मैं अग्निप्रवेश करूंगी, अथवा अभिमंत्रित अक्षतों का भक्षण करुँगी अथवा तुला पर चढूँगी अथवा जीभ से शस्त्र की धार ग्रहण करूंगी अथवा ऊष्ण सीसे का पान करुँगी ! आपको जो इष्ट हो, वह For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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