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________________ ध्यान हैं अर्थात् (i) आर्तध्यान और (ii) रौद्रध्यान । तप के रूप में ध्यान का संबंध प्रशस्त प्रकार के ध्यान से है क्योंकि केवल वे ही शुभ और लोकातीत जीवन से संबंधित हैं। इसके विपरीत अप्रशस्त ध्यान सांसारिक दुःखों की ओर ले जाता है। वह मुनि जिसके असाध्य रोग है, असहनीय वृद्धावस्था है, स्थानीय अकाल है, सुनने और देखने में कमजोरी है, पैरों में अशक्तता आदि है, सल्लेखना (मरण का आध्यात्मिक स्वागत ) ग्रहण करता है। सम्पूर्ण आचारशास्त्र जो गृहस्थ और मुनि के लिए निर्धारित है वह व्यवहार में अहिंसा के रूपान्तरण के लिए प्रतिपादित है, जिसकी पूर्णता रहस्यात्मक अनुभूति में उद्घाटित होती है। इस तरह से आचारशास्त्र के मूलस्रोत का संबंध यदि तत्त्वमीमांसा से घनिष्ठ है तो उसका रहस्यवाद से भी संबंध कम नहीं है। जैनधर्म में 'रहस्यवाद' का समानार्थक शब्द 'शुद्धोपयोग' है। बहिरात्मा को छोड़ने के पश्चात् अन्तरात्मा के द्वारा लोकातीत आत्मा की अनुभूति रहस्यवाद है । अन्तरात्मा से लोकातीत आत्मा तक की यात्रा नैतिक और बौद्धिक साधनों के माध्यम से की जाती है, जो भी अन्तर्दिव्यता की उत्पत्ति में बाधक होते हैं वे मिटा दिये जाते हैं। पूर्णता प्राप्त होने से पहले एक ज्योतिपूर्ण अवस्था से गिरना संभव हो सकता है। तात्त्विक शब्दावली में हम कह सकते हैं कि 'रहस्यवाद' आत्मा की स्वाभाविक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की अनुभूति है । यह आत्मा की स्वरूपसत्ता की अनुभूति है । रहस्यवाद और तत्त्वमीमांसा द्रव्य की समस्या के प्रति भेद दर्शाते हैं। यदि रहस्यवादी की पद्धति अनुभव और अन्तर्ज्ञान है तो तत्त्वमीमांसक की पद्धति केवल विचारणा है। Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only (91) www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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