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________________ पर पूर्णतया निर्भर नहीं होता है। सामाजिक निर्भरता आध्यात्मिक व्यक्तित्व प्राप्त करने की स्वतन्त्रता को छीन नहीं सकती है। व्यक्ति सामाजिक मशीन में केवल एक दाँता नहीं है। जैनधर्म ऐसे व्यक्तित्व को स्वीकार नहीं करता जो सामाजिक उत्तरदायित्व की उपेक्षा करता हो। इस तरह से वास्तविक दृष्टिकोण मानता है कि व्यक्ति और समाज एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति समाज को गढ़ता है और समाज के द्वारा वह गढ़ा जाता है। इस तरह व्यक्ति समाज पर निर्भर होता है, किन्तु वह शनैः-शनैः समाज से स्वतंत्र हो जाता है, निर्भरता त्याग देता राज्य की धारणा और उसके कार्य यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अणुव्रतों और शीलव्रतों का पालन करने से राज्यरहित समाज का विकास हो सकता है। राजनैतिक शक्ति ऐसे व्यक्तियों के उदय होने से जिनका जीवन आत्म-नियंत्रित है अनावश्यक हो जायेगी। गृहस्थ के ये व्रत-अपरिग्रह, सत्य, अस्तेय, दिग्व्रत, देशव्रत व भोगोपभोगपरिमाणव्रत आर्थिक समस्याओं को हल करने में समर्थ होंगे और ब्रह्मचर्य, सामायिक और प्रोषधोपवास ये व्यक्ति को आत्म-संयम में शिक्षित करने के लिए सकारात्मक रूप से और अनर्थदण्डत्यागवत निषेधात्मक रूप से पर्याप्त होंगे। वैयावृत्त्य के कारण सामाजिक सेवा की भावना को पोषण मिलेगा। अंत में अहिंसा व्यापक सिद्धान्त के रूप में कार्य करेगी। जब समाज इन व्रतों का पालन करेगा तो राज्य जो समाज का बाह्य आवरण है उसको छोड़ना पड़ेगा। इस तरह राज्य समाप्त हो जायेगा। एक सजग सामाजिक व्यवस्था का अस्तित्व राज्य के बिना हो सकता है किन्तु यह आदर्श व्यवस्था है और इसका कभी भी क्रियान्वयन नहीं हो सकेगा। संभवतया ऐसा समय (78) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004208
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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