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________________ है, स्थानीय अकाल है, सुनने और देखने में कमजोरी है, पैरों में अशक्तता है और कई अपरिहार्य कष्ट आदि हैं उस मुनि को उपर्युक्त मरणों में से कोई भी मरण ग्रहण करने की स्वीकृति है।23 जो मुनि चारित्र का पालन करने में समर्थ है उसको इस प्रकार के मरण ग्रहण नहीं करने चाहिए।224 अब हम भक्तप्रतिज्ञा-मरण का वर्णन करेंगे। (i) भक्तप्रतिज्ञा-मरण उपर्युक्त अभिव्यक्त की गयी परिस्थितियों में तथा प्राकृतिक मृत्यु की निश्चितता (अधिक से अधिक 12 वर्ष में25 या कम से कम 6 महीने में) जान ली गयी है तो मुनि भक्तप्रतिज्ञा-मरण अपनाता है। पहले तो मुनि किसी योग्य आचार्य के निर्देशन में अंतरंग व बाह्य त्याग की प्रक्रिया अपनाता है।26 अंतरंग त्याग का संबंध है- क्रोध आदि कषायों के नष्ट करने से और बाह्य त्याग का संबंध है- शरीर को दुर्बल करने से।227 मुनि सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर देता है सिवाय पीछी कमंडलु के। बाह्य और अंतरंग शुद्धता प्राप्त करता है और तप, ज्ञान, निर्भयता, एकान्त और धैर्य पर चिन्तन करता है।228 वह शक्ति बढ़ानेवाले रसों को छोड़कर केवल सादा भोजन लेता है और छह प्रकार के बाह्य तपों का पालन करता है। मुनि अपने शरीर को शनैः-शनैः 223. भगवती आराधना, 71-74 224. भगवती आराधना, 75 225. भगवती आराधना, 252 उत्तराध्ययन, 36/250 226. भगवती आराधना, 159, 205 227. भगवती आराधना, 206 228. भगवती आराधना, 162-167, 187 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (57) Jain Education International For Personal & Private Use Only For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004207
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2011
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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