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________________ ६२ श्री उपासकदशांग सूत्र ठवेत्ता तं मित्त जाव जेट्टपुत्तं च आपुच्छित्ता कोल्लाए सण्णिवेसे णायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए'। ____ कठिन शब्दार्थ - सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं - शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण-विरति, प्रत्याख्यान-त्याग पौषधोपवास आदि से, धम्मजागरियं - धर्म जागरण, राईसरराजा, ईश्वर, विक्खवेणं - व्याक्षेप-कार्य बहुलता, विक्षेप-रुकावट, ठवेत्ता - स्थापित कर, धम्मपण्णत्तिं - धर्मप्रज्ञप्ति को । भावार्थ - तदनन्तर आनंद श्रमणोपासक को अनेक विध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के बाद धर्म जागरणा करते हुए उनके मन में ऐसा चिंतन, आंतरिक मांग, मनोभाव या संकल्प उत्पन्न हुआ - मैं वाणिज्यग्राम नगर में बहुत से राजा, ईश्वर आदि के अनेक कार्यों में पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य हूं, अपने सारे कुटुम्ब का मैं आधार हूँ। इस व्याक्षेप-कार्य बहुलता या रुकावट के कारण मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्मप्रज्ञप्ति (धर्म शिक्षा के अनुरूप,आचार का सम्यक् पालन करने में) स्वीकार करने में समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ। इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं कल सूर्योदय होने पर पूरण गाथापति की भांति विपुल आहार पानी बना कर यावत् अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त कर उन मित्र आदि यावत् ज्येष्ठ पुत्र को पूछ कर कोल्लाक सनिवेश में जो ज्ञातृकुल की पौषधशाला है उसका प्रतिलेखन कर भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्मप्रज्ञप्ति को स्वीकार कर विचरण करूँ। ___ एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं विउलं०, तहेव जिमियभुत्तुत्तरागए तं मित्त जाव विउलेणं पुप्फ ५ सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता तस्सेव मित्त जाव पुरओ जेट्टपुत्तं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एव वयासी - ‘एवं खलु पुत्ता! अहं वाणियगामे बहूणं राईसर जहा चिंतियं जाव विहरित्तए, तं सेयं खलु मम इंदाणिं तुमं सयस्स कुडुम्बस्स आलम्बणं ४ ठवेत्ता जाव विहरित्तए'। तए णं जेट्टपुत्ते आणंदस्स समणोवासगस्स तहत्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ। कठिन शब्दार्थ - संपेहेइ - संप्रेक्षण - सम्यक् चिंतन किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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