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________________ श्री उपासकदशांग सूत्र कठिन शब्दार्थ - संवच्छराई - वर्ष, वीइक्कंताई - व्यतीत हो गए, जेट्ठपुत्तं - ज्येष्ठ पुत्र को । भावार्थ तब कुण्डकौलिक श्रमणोपासक बहुत से शीलव्रत, गुणव्रत यावत् पौषधोपवास तथा तपस्या से आत्मा को भावित करते हुए रहने लगे । श्रावक पर्याय के चौदह वर्ष व्यतीत हो गये । पन्द्रहवें वर्ष के किसी दिन कामदेव श्रावक की तरह अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त कर पौषधशाला में धर्म प्रज्ञप्ति की आराधना करने लगे । एवं एक्कारस उवासगपडिमाओ, तहेव जाव सोहम्मे कप्पे अरुणज्झए विमाणे जाव अंतं काहि ॥ णिक्खेवो ॥ ॥ छ्टुं अज्झयणं समत्तं ॥ १२६ भावार्थ - कुण्डकौलिक श्रमणोपासक ने ग्यारह उपासक प्रतिमाओं का सम्यक् आराधन स्पर्शन एवं पालन किया यावत् सारा वर्णन जान लेना चाहिये । संलेखना कर के समाधिपूर्वक काल करके सौधर्म देवलोक के अरुणध्वज विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। जहां उनकी स्थिति चार पल्योपम की कही गई है। वहां से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बुद्ध यावत् सभी दुःखों का अंत करेंगे। निक्षेप - आर्य सुधर्मा स्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा हे जम्बू ! मोक्ष प्राप्त श्रमण महावीर स्वामी ने उपासकदशा सूत्र के छठे अध्ययन के यही भाव फरमाये, जो मैंने तुम्हें बताये हैं। भगवान् Jain Education International ॥ छठा अध्ययन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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