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________________ प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - उपसंहार निर्भीकतापूर्वक स्पष्ट निवेदन किया कि 'जिनशासन की यह रीति-नीति नहीं रही। यहाँ सच्चे को सच्चा एवं निर्दोष को निर्दोष माना गया है। मैंने तो जैसा देखा, वैसा निवेदन किया है।' उपसंहार आणंदे णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववजिहिइ? ___ गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ॥ णिक्खेवो॥ ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - आउक्खएणं - आयुष्य के क्षय - आयुष्य कर्म के प्रदेशों के क्षय से भवक्खएणं - भव के क्षय - भव के निबंधन भूत, गति, जाति आदि नाम कर्म की प्रकृतियों के क्षय - से, ठिइक्खएणं - आयुकर्म की स्थिति के क्षय से, णिक्खेवो - निक्षेप। भावार्थ - गौतम स्वामी ने भगवान महावीर स्वामी से पूछा - 'हे भगवन्! आनंद उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति का क्षय होने पर देव शरीर का त्याग कर कहाँ जायेगा, कहाँ उत्पन्न होगा?' भगवान् ने फरमाया - 'हे गौतम! आनंद महाविदेह क्षेत्र में जन्म धारण कर सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का क्षय करेगा।', निक्षेप - आर्य सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से कहा - हे जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने उपासकदशांग सूत्र के प्रथम अध्ययन का यह भाव फरमाया जो मैंने तुम्हें बतलाया है। ॥ प्रथम अध्ययन समाप्त॥ विवेचन - गृहस्थावस्था में रहते हुए भी किस प्रकार प्रवृत्ति में निवृत्ति भाव धारण करना, किस प्रकार धर्म आराधना करते हुए आध्यात्मिक विकास करना, इसका सुंदर मार्गदर्शन आनंद श्रावक के इस प्रथम अध्ययन में है। आत्म विकास के इच्छुक प्रत्येक गृहस्थ को आनंद श्रावक की तरह जीवन के अंतिम भाग में घर धंधों से पूर्णतया निवृत्त होकर धर्म आराधना में ही लग जाना चाहिये और अपना आत्म-कल्याण करना चाहिये, यही प्रस्तुत अध्ययन का सार संक्षेप है। . ॥ आनंद श्रावक नामक प्रथम अध्ययन सम्पूर्ण॥ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004202
Book TitleUpasakdashang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2004
Total Pages210
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size20 MB
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