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________________ 314 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०२ अ०५ ******************************************** ***** सूर्य का प्रकाश अन्धकार को मिटाता है, उसी प्रकार उन ज्ञानी महात्माओं का ज्ञान प्रकाश भी अज्ञान रूपी अन्धकार को मिटाने वाला है। 8. अचले जह मंदरे गिरिवरे - नगाधिराज सुमन्दर के समान अचल। जिस प्रकार सुमेरु पर्वत - भयंकर बवण्डर से भी कम्पित नहीं होता और स्थिर रहता है, उसी प्रकार वे दृढ़ संयमी अनगारसिंह, संयम साधना में उपस्थित होते हुए भयंकर उपसर्ग से भी नहीं डिगते और संयम में अधिकाधिक स्थिर रहकर मृत्यु का भी सामना करते रहते हैं। उन्हें न तो अनुकूल (स्त्री एवं सत्कार) परीषह डिगा सकते हैं और न प्रतिकूल (रोगादि) परीषह डिगा सकते हैं। वे परीषहों और उपसर्गों के सामने धीर-वीर / होकर डट जाते हैं। 9. अक्खोभे सागरोव्व थिमिए - अक्षुब्ध-शान्त समुद्र के समान स्तिमित-निस्तरंग। जिस प्रकार समुद्र गम्भीर होता है, वह क्षुद्र नाले की तरह छलक कर खाली नहीं हो जाता उसी प्रकार निर्ग्रन्थ अनगार भी उदार और गम्भीर होते हैं। वे अनुकूल निमित्तों से प्रसन्न नहीं होते और प्रतिकूल निमित्तों से खिन्न नहीं होते तथा अनार्यों और म्लेच्छजनों द्वारा दिये हुए कष्टों को शान्तिपूर्वक सहन करते हैं। / उनकी गम्भीरता को भंग करने की शक्ति किसी देव-दानव में भी नहीं है। वे 'नागश्री' का दिया हुआ हलाहल विष के समान प्राणघातक तुम्बीपाक भी शांतिपूर्वक खा सकते हैं और सोमिल द्वारा सिर पर आग भी रखवा सकते हैं। 10. पुढवीव्व सव्व फाससहे - पृथ्वी के समान सभी स्पर्श सहने वाले। जिस प्रकार पृथ्वी सर्दी, गर्मी, कूड़ा-करकट, विष्ठा, मूत्र तथा हल-कुदालादि के प्रहार सहती हुई भार-वहन करती है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ मुनिराज भी अपने को वन्दना करने वालों तथा गाली देने और प्रहार करने वालों के प्रति समभाव रखते हुए सभी प्रकार के कष्टों को सहन करते हैं। 11. तवसा च्चिय भासरासि छण्णिव जायतेए - भस्म के ढेर से आच्छादित अग्नि के समान। राख में दबी हुई अग्नि ऊपर से दिखाई नहीं देती। ऊपर तो केवल राख ही दिखाई देती है, किन्तु उसके नीचे जाज्वल्यमान प्रकाश देने वाली अग्नि है। ऊपर राख आ जाने से अग्नि का तेज नष्ट नहीं होता। उसी प्रकार तपस्वी संत का शरीर दुर्बल, रूक्ष और निस्तेज होते हुए भी उस तेजस्वी आत्मा में तप का तेज विद्यमान रहता है। अग्नि पर राख आ जाने से उसका तेज बाहर नहीं निकलता भीतर ही दबा रहता है, फिर उन भी उन तपोधनी महात्माओं का आत्म-तेज, दुर्बल देह पर भी झलकता है। प्रातः स्मरणीय श्री धना अनगार का शरीर, तपस्या की भट्टी में जल कर निस्तेज हो गया था किन्तु उनका आत्म-तेज इतना बढ़ गया था कि उसकी आभा, कृश शरीर पर भी प्रकट हो रही थी। 12. जलियहुयासणे विव तेयसा जलंते - घृत-सिंचिंत अग्नि के समान तप के तेज से जाज्वल्यमान जिस प्रकार घृत से सिंचन की हुई अग्नि विशेष रूप से जाज्वल्यमान होती है, उसी प्रकार वे उत्तम श्रमणवर, ज्ञान और तपस्या के तेज से देदीप्यमान होते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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