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________________ 306 ********* प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०.२ अ०५ *************************** सन्निपात होकर असह्य, भयंकर एवं प्रगाढ़ वेदना भड़के उठे, जिससे जीवन का अन्त निकट दिखाई दे और समस्त शरीर उग्र परितापना से पीड़ित हो जाये, तो भी उस श्रमण को अपने लिए या वैसे किसी भयंकर रोगी श्रमण के लिए आहार-पानी और औषध-भेषज्य संग्रह करके नहीं रखना चाहिए। . विवेचन - अपरिग्रह महाव्रतधारी श्रमण को अपना व्रत सुरक्षित रखने के लिए खाना पानादि ऐसी कोई भी वस्तु जो उसी दिन काम में लेने की हो, भविष्य में काम में लेने के लिए संग्रह करके नहीं रखनी चाहिए, भले ही भयंकर रोग उत्पन्न हो जाये और मृत्यु हो जाने जैसी देशा हो जाये, ऐसी विकट स्थिति में भी आहार-पथ्य, पानी या औषधि, सूर्यास्त के बाद नहीं रखनी चाहिए। इस प्रकार जो अपने महाव्रत को सुरक्षित रखते हैं, उनका संयम निर्दोष होता है। साधु के उपकरण जं वि य समणस्स सुविहियस्स उ पडिग्गहधारिस्स भवइ भायणभंडोवहिउवगरणं पडिग्गहो पायबंधणं पायकेसरिया पायठवणं य पडलाइं तिण्णेव रयत्ताणं च गोच्छओ तिण्णेव य पच्छागा रयहरण चोल-पट्टग-मुहणंतगमाइयं एवं वि य संजमस्सं . उववूहणट्ठयाए वायायव-दंस-मसग-सीय-परिक्खणट्ठयाए उवगरणं रागदोसरहियं परिहरियव्वं, संजएण णिच्चं पडिलेहण-पप्फोडण-पमजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सययं णिक्खिवियव्वं च गिहियव्वं च भायणभंडोवहि उवगरणं। .. ... शब्दार्थ - जं वि य - और जो भी, समणस्स सुविहियस्स - सुविहित साधु के, पडिग्गहधारिस्सपात्रादि रखने वाले, भवइ - होता है, भायणभंडोवहिउवगरणं भोजन-पात्र भाण्ड आदि उपधि रूप उपकरण, पडिग्गहो - पात्र, पायबंधण - पात्र बांधने का कपड़ा, पायकेसरिया - पात्र-केसरिका-पात्र पोंछने का वस्त्र, पायठवणं - पात्र को स्थापित करने का वस्त्र का टुकड़ा, पडलाई - पात्र ढकने का वस्त्र, तिण्णेव - ये तीन, रयत्ताणं - रजस्त्राण-पात्र लपेटने का वस्त्र, गोच्छओ - गोच्छक-पात्र वस्त्र आदि प्रमार्जन करने के लिए पूजनी, तिण्णेव - तीन, य - और, पच्छागा - पछेवड़ी-चादर, रयहरण - रजोहरण, चोलपट्टग - चोलपट्टा, मुहणंतगं - मुखवस्त्रिका, आइयं - आदि, एयं वि - ये सभी, संजमस्स-संयम की, उववूहणट्ठयाए - उपबृंहण अर्थात् वृद्धि के लिए, वायायवदंसमसगसीयं परिरक्खणट्ठयाए - वायु, धूप, डांस, मच्छर और शीत से रक्षा के लिए, रागदोसरहियं - राग-द्वेष रहित होकर, संजएण - साधु को, उवगरणं - उपकरणों का, परिहरियव्वं - उपभोग करना चाहिए, णिच्चं - सदा, पहिलेहणपप्फोडणपमज्जणाए - पडिलेहण, प्रस्फोटन और प्रमार्जन रूप क्रिया में, सययं - सतत, अप्पमत्तेण - प्रमाद-रहित होकर, अहो य राओ - दिन-रात, भायण-भंडोवहिउवगरण - भाजन-पात्र, भांड और उपधि रूप उपकरणों को, णिक्खियव्वं - रखना चाहिए, गिहियव्वं होइ - ग्रहण करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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