SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 288
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 271 **************************************************************** ब्रह्मचर्य की 32 उपमाएं में पैठे हुए शल्य के समान विदारित हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य के नष्ट होने पर अन्य व्रत उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार पर्वत-शिखर से गिरा हुआ पाषाण-खण्ड नष्ट होता है-खण्डित हो जाता है। जिस प्रकार कुष्टादि महारोग से शरीर घृणित एवं विद्रूप हो जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य खण्डित होने पर सभी गुण दूषित हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य के विनाश से समस्त गुणों का विनाश हो जाता है। अतएव ब्रह्मचर्य व्रत को सावधानी के साथ सुरक्षित रखना चाहिए। ब्रह्मचर्य की 32 उपमाएं ___तं बंभं भगवंतं 1. गहगणणक्खत्ततारगाणं वा जहा उडुवई, 2. मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागराणं य जहा समुद्दो, 3. वेरुलिओ चेव जहा मणीणं, 4. जहा मउडो चेव भूसणाणं, 5. वत्थाणं चेव खोमजुयलं, 6. अरविंदं चेव पुप्फजेटुं, 7. गोसीसं चेव चंदणाणं, 8. हिमवंतो चेव ओसहिणं, 9. सीतोदा चेव णिण्णगाणं, 10. उदहीसु जहा सयंभूरमणो, 11. रुयगवर चेव मंडलियपव्वयाणं पवरे, 12. एरावण इव कुंजराणं, 53. सीहोव्व जहा मियाणं पवरे, 14. पवगाणं चेव वेणुदेवे, 15. धरमो जहा पण्णगिंदराया, 16. कप्पाणं चेव बंभलोए, 17. सभासु य जहा भवे सुहम्मा 18. ठिइसु लवसत्तमव्व पवरा, 19. दाणाणं चेव अभयदाणं, 20. किमिराउ चेव कंबलाणं 21. संघयणे चेव वज्जरिसहे, 22. संठाणे चेव समचउरंसे, 23. झाणेसु य परमसुक्कज्झाणं, 24. णाणेसु य परमकेवलं तु पसिद्धं, 25. लेसासु य परमसुक्कलेस्सा, 26. तित्थयरे चेव जहा मुणीणं, 27. वासेसु जहा महाविदेहे, 28. गिरिराया चेव मंदरवरें, 29. वणेसु जहा णंदणवणं पवरं, 30. दुमेसु जहा जंबू, सुदंसणा विसुयजसा जीयणामेण य अयं दीवो, 31. तुरगवई गयवई रहवई णरवई जह विसुए चेव, 32. राया रहिए चेव जहा महारहगए, एवमणेगा गुणा अहीणा भवंति एग्गम्मि बंभचेरे जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सव्वं सीलं तवो य विणओ य संजमो य खंती गुत्ती मुत्ती तहेव इहलोइय-पारलोइयजसे य कित्ती य पच्चओ य, तम्हा णिहुयण बंभचेरं चरियव्वं सव्वओ विसुद्धं जावजीवाए जाव सेयट्ठिसंजओ त्ति एवं भणियं वयं भगवया। . शब्दार्थ - तं - यह, बंभं - ब्रह्मचर्य, भगवंतं - भगवान् है, गहगणणक्खत्ततारगाणं - ग्रहगण, नक्षत्र और तारागण में, वा जहा उडुवई - जैसे चन्द्रमा, मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागराणंमणि, मोती, शिला, प्रवाल-विद्रुम मणि स्क्तरन अर्थात् पद्मराग आदि रत्नों की उत्पत्ति स्थान, य जहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy