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________________ पाँचवीं भावना-साधर्मिक विनय 265 . **************************************************************** शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ, साहारण-पिंडपायलाभे - सब साधुओं के लिए सम्मिलित आहार आदि के मिलने पर. भोत्तव्वं- आहार करना. संजएणं- साध को. समियं- सम्यक यतनापर्वक. ण सायसूपाहियं - न शाक और सूप की अधिकता वाला, ण खद्धं - साथ बैठकर स्वयं अधि या जल्दीजल्दी नहीं खाना, ण वेगियं - वेग युक्त नहीं, ण तुरियं - शीघ्रतापूर्वक, ण चवलं - चंचलतापूर्वक नहीं, ण साहसं - बिना विचारे नहीं, ण य परस्स पीलाकारसावजं - और दूसरों को पीड़ाकारक तथा सदोष रीति से नहीं, तह भोत्तव्यं - इस प्रकार खाना चाहिए, जह से तइयवयं - जिस प्रकार तीसरा व्रत, ण सीयइ - नष्ट नहीं हो, साहारण पिंडपायलाभे - साधारण पिण्डपात के लाभ में, सुहमं - सूक्ष्म, अदिण्णादाणवयणियसविरमणं - अदत्तादान विरमण व्रत से आत्मा का नियमन करने वाला, एवं - इस प्रकार, साहारणपिंडपायलाभे - साधारण पिण्डपात के लाभ से, समिइजोगेण - समिति के योग से, भाविओ - भावित, भवइ - होती है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, णिच्चं - सदैव, अहिगरण करण कारावण पावकम्मविरए - अधिकरण रूप पाप-कर्म के करने-कराने रूप कर्म से विरत, दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई - दत्त और अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला। भावार्थ - अनुज्ञातभक्तादि चौथी भावना है। साधु का कर्त्तव्य है कि वह गुरु आदि रत्नाधिकों की आज्ञा प्राप्त करके ही अशन-पानादि का उपभोग करे। साथ के सभी साधुओं के लिए जो आहारादि सम्मिलित रूप में प्राप्त हुआ है, उसे सभी के साथ समिति एवं शांतिपूर्वक खाना चाहिए। खाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि जिससे अदत्तादान का पाप नहीं लगे। उस सम्मिलित आहार में से शाक तथा दाल स्वयं अधिक नहीं खावे। अपने भाग के आहार से न तो अधिक खावें और न शीघ्रतापूर्वक खावें। खाने में चपलता नहीं लावें। खाते समय असावधानी नहीं रखें, किन्तु सोच समझकर उचित रीति से खावें। बोजन करने में इस बात का विवेक रखें कि जिससे दूसरे साधु को पीड़ा उत्पन्न नहीं हो। सम्मिलित रूप से प्राप्त आहार का भोजन इस प्रकार करें कि जिससे तीसरे महाव्रत में किसी प्रकार का दोष नहीं लगे। यह अंदत्तादान-विरमण रूप महाव्रत बड़ा सूक्ष्म है। साधारण रूप से आहार और पात्र का लाभ होने पर समिति पूर्वक आचरण करने से अन्तरात्मा विशुद्ध होती है और दुर्गति-दायक कुकृत्यों के करने-कराने रूप पाप-कर्म से दूर रहती है। वह पवित्रात्मा दत्तमनुज्ञात आहारादि ग्रहण करने की रुचि वाली होती है। पंचमी भावना-साधर्मिक विनय पंचमगं साहम्मिए विणओ पउंजियव्वो उवगरणपारणासु विणओ पउंजियव्वो वायणपरियट्टणासु विणओ पउंजियव्वो दाणगहण-पुच्छणासु विणओ पउंजियव्वो णिक्खमणपवेसणासु विणओ पउंजियव्वो, अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु कारणसएसु विणओ पंउजियव्वो। विणओ वि तवो, तवो वि धम्मो तम्हा विणओ पउंजियव्वो। गुरुसु साहुसु तवस्सीसु य, एवं विणएण भाविओ भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरणं करण-कारावण-पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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