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________________ पाँचवीं भावना-हास्य-त्याग 247 ******************* ***************** शब्दार्थ - चउत्थं - चतुर्थ, ण - नहीं, भीइयव्वं - भयभीत, भीयं - हरे हुए, भया - भय, अइंतिआता है, लहुयं - शीघ्र, भीओ - भयभीत, अबितिजओ - किसी का सहायक न होना, मणूसो - मनुष्य, भूएहिं - भूत, घिप्पिइ - ग्रहण करना, अप्पं वि - दूसरों को भी, भेसेज्जा - भयभीत करता है, तवसंजमं - तप-संयम, मुएज्जा - छोड़ देता है, भरं - भार को, ण णित्थरेजा - पार पहुंचाने में असमर्थ, सप्पुरिसणिसेवियं - सत्पुरुषों द्वारा सेवित, मग्गं - मार्ग में, ण समत्थो - समर्थ नहीं होता, अणुचरिउंविचरण करने में, तम्हा - इसलिए, भयस्स - भय से, वाहिस्स - व्याधि, रोगस्स - रोग, वा - और, जराए.- बुढ़ापा, मच्चुस्स - मृत्यु से, अणस्स - अन्य, एवमाइयस्स - इस प्रकार के, धेज्जेण - धैर्य से, भाविओ - भावित. भवड - होता है, अंतरप्पा - अन्तरात्मा, संजयकर-चरण-णयण-वयणो - हाथ, पैर, नैत्र और मुख का संयम वाला, सूरो - शूरवीर, सच्चज्जवसंपण्णो - सत्य तथा सरलता से सम्पन्न होता है। भावार्थ - चौथी भावना भय-त्याग से निष्पन्न होती है। भय को त्याग कर निर्भय बनने वाला साधक, सत्य-महाव्रत का पालक होता है। भयग्रस्त मनुष्य के सामने सदैव भय के निमित्त उपस्थित रहते हैं। भयाकुल मनुष्य किसी का सहायक नहीं बन सकता। भयाक्रांत मनुष्य, भूतों के द्वारा ग्रसित हो जाता है। एक डरपोक मनुष्य दूसरे को भी भयभीत कर देता है। डरपोक मनुष्य डर के मारे तप और संयम को भी छोड देता है। वह उठाये हए भार को बीच में ही पटक देता है-पार नहीं पहँचाता। भयभीत मनुष्य सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग में विचरण करने में समर्थ नहीं होता। इस प्रकार भय को पाप का कारण जान कर त्याग करके निर्भय होना चाहिए। भय के कारण-व्याधि, रोग, बुढ़ापा, मृत्यु और ऐसे अन्य प्रकार के भयों से साधु को भयभीत नहीं होना चाहिए। धैर्य धर कर निर्भय होने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है-निर्मल रहकर बलवान् बनती है। निर्भय साधक के हाथ, पांव, नेत्र और मुख आदि संयमित रहते हैं। वह शूरवीरं साधक, सत्य-धर्मी होता है एवं सरलता के गुण से सम्पन्न होता है। .. पांचवीं भावना-हास्य-त्याग ___पंचमगं हासंण सेवियव्वं अलियाइं असंतगाइं जपंति हासइत्ता परपरिभवकारणं च हासं, परपरिवायप्पियं च हासं, परपीलाकारगं च हासं, भेयविमुत्तिकारगं च हासं, अण्णोण्णजणियं च होज हासं, अण्णोण्णगमणं च होज मम्मं, अण्णोण्णगमणं च होज कम्मं, कंदप्पाभियोगगमणं च होज हासं, आसुरियं किव्विसत्तणं च जणेज हासं, तम्हा हासंण सेवियव्वं / एवं मोणेण भाविओ भवइ अंतरप्पा संजय-करचरण-णयण-वयणो सूरो सच्चजवसंपण्णो। शब्दार्थ - पंचमगं - पांचवीं, हासं.- हास्य, ण सेवियव्वं - सेवन नहीं करना, अलियाई - मिथ्या, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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