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________________ 239 सदोष सत्य का त्याग * HARRRRRRRRRRRR************************************** जाइकुलरूववाहिरोगेण वावि जं होई वजणिजं दुहओ उवयारमइक्कंतं एवं विहं सच्चं वि ण वत्तव्वं। शब्दार्थ - सच्चं वि - जो सत्य, संजमस्स - संयम में, उवरोहकारगं - बाधक होता हो, किंचिकिचिंत् भी कदापि, ण - नहीं, वत्तव्वं - बोलना, हिंसासावजसंपउत्तं - हिंसा तथा अन्य कोई पाप, भेयविकहकारगं - चारित्र-नाशक और स्त्री आदि की विकथा, अणत्यवायकलहकारगं - नि:सार वचन, कलहकारी वचन, अणजं - अनार्य-न्याय-रहित, अववाय-विवायसंपउत्तं - अपवाद और विवाद युक्त, वेलंब - दूसरों के हृदय में क्लेश उत्पन्न करने वाला, ओजधेजबहुलं - बल प्रयोग और ढिठाई परिपूर्ण, जिल्लज - रजा-रहित, लोयगरहणिजं - लोक-निन्दित, दुद्दिढ़ - विकृत दृष्टि से देखा हुआ, दुस्सुयंदुःश्रुत-भली-भांति न सुना हुआ, अमुणियं - भली-भांति न जाना हुआ-विकृत रूप से जाना हुआ, अप्पणो-थवणा - स्वयं की स्तुति रूप, परेसु - दूसरों की, जिंदा - निंदा, ण तंसि मेहावी - तुम बुद्धिमान नहीं हो, ण तंसि धण्णो - तुम धन्य अथवा धनवान् नहीं हो, ण तंसि पियधम्मो - तुम प्रियधर्मी नहीं हो, ण तंसि कुलीणो - तुम कुलीन नहीं हो, ण तंसि दाणवई - तुम दानदाता नहीं हो, ण तंसि सूरो - तुम शूरवीर नहीं हो, ण तंसि पडिरूवो - तुम सुन्दर नहीं हो, ण तंसि लट्ठो - तुम सौभाग्यवान् नहीं हो, ण पंडिओ - तुम पंडित नहीं हो, ण बहुस्सुओ - तुम बहुश्रुत नहीं हो, ण वि य तंसि तवस्सीन तुम तपस्वी हो, ण यावि परलोयणिच्छयमई - परलोक के विषय में तुम्हारी बुद्धि निश्चित नहीं है, सव्वकालं - सर्वदा, जाइकुलरूववाहिरोगेण - जाति, कुल, रूप, व्याधि और रोग को प्रकाशित करना, वज्जणिज्ज - वर्जनीय, दुहओ- दोनों प्रकार से, उवयारमइक्कंतं - उपकारक नहीं है, एवं विहंइस प्रकार का, सच्चं वि - सत्य होते हुए भी, ण वत्तव्वं - नहीं बोलना चाहिए। भावार्थ- आत्मा के लिए सत्य परम हितकारी है। किन्तु वह होना चाहिए निर्दोष। जिस सत्य से संयम में क्षति पहुँचती हो, जिस भाषण से हिंसादि पाप होता हो या पाप का समर्थन होता हो, जिससे अहिंसादि संयम एवं सामायिकादि चारित्र की कुछ भी हानि होती हो, जो स्त्री-कथादि राग-द्वेष तथा मिथ्यात्व, अविरति आदि पाप-कथा से युक्त हो, नि:सार वचन, क्लेशोत्पादक, न्याय रहित, अपवाद (निन्दा) रूप, विसंवाद (झगड़ा) उत्पन्न करने वाला, दूसरों के मन में क्लेश उत्पन्न करने वाला, बलप्रयोग एवं ढिठाई से भरा हुआ, लज्जा-रहित, लोक-निन्दित, भली प्रकार से नहीं देखा, नहीं सुना, नहीं जाना और नहीं समझा हुआ, अपने-आपकी प्रशंसा और दूसरे की निन्दा रूप वचन आदि सत्य भी हो, तो कभी भी नहीं बोलना चाहिए। दूसरों को हीन बताने वाले वचन, जैसे कि - 'तू बुद्धिमान नहीं (बुद्धिहीन) है, तू धन्य (धन्यवाद का पात्र अथवा धनवान्) नहीं है, तू पण्डित नहीं, बहुश्रुत नहीं, तपस्वी नहीं और परलोक के विषय में तुम्हारी मति निश्चित नहीं है। इस प्रकार जो वचन सत्य होते हुए भी निन्दित हो, जाति, कुल, रूप, व्याधि और रोग से हीनता प्रकट करने वाला हो, दूसरे के मन में पीड़ा उत्पन्न करने वाला हो, तो इस प्रकार का वचन त्यागने योग्य है। जो द्रव्य और भाव अथवा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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