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________________ १४४ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०३ **###############################**************** पंचिंदियतिरिएस, हयगयरयणा हवंति उ सुहाओ। सेसाओ असुहाओ सुहवण्णेमिंदियादीया ॥४॥ देविंदचवकवट्टित्तणाई, मोत्तुं च तित्थयरभावं। अणगारभावियावि य, सेसाओ अणंतसो पत्ता॥५॥" - शीत आदि चौरासी लाख योनियों में अशुभ योनियां भी हैं और शुभ भी। इनमें शुभ योनियाँ इस प्रकार हैं - असंख्य वर्ष की आयु वाले मनुष्य (युगल) संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में राजेश्वरादि, तीर्थंकर नाम-कर्म के बन्धक सर्वोत्तम शुभ योनि वाले हैं। संख्यात वर्ष की आयु वालों में भी उच्च जाति-कुल सम्पन्न तो शुभ योनि वाले हैं, इनके अतिरिक्त अशुभ योनि वाले हैं। देवों में किल्विषी आदि की शुभ और अन्य शुभ हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रियों में हस्तिरत्न अश्वरत्न शुभ हैं, शेष अशुभ और एकेन्द्रियादि में शुभ वर्णादि वाले शुभ और अन्य अशुभ हैं। देवेन्द्र, चक्रवर्ती, तीर्थकर और भावितात्मा अनगार के अतिरिक्त शेष अनन्तबार संसार योनियों में पतित होते हैं। पापियों के पाप का फल जहिं आउयं णिबंधति पावकम्मकारी, बंधव-जण-सयण-मित्तपरिवजिया अणिट्ठा भवंति अणाइजदुव्विणीया कुठाणा-सण-कुसेज-कुभोयणा असुइणो कुसंघयणकुप्पमाण कुसंठिया, कुरूवा बहु-कोह-माण-माया-लोह बहुमोहा धम्मसण्ण-सम्मत्तपरिभट्ठा दारिदोवद्दवाभिभूया णिच्चं परकम्पकारिणो जीवणत्थरहिया किविणा परपिंडतक्कगा दुक्खलद्धाहारा अरस-विरस-तुच्छ-कयकुच्छिपूरा परस्स पेच्छंता रिद्धिसक्कार-भोयणविसेस-समुदयविहिं जिंदंता अप्पगं कयंतं य परिवयंता इहे. य पुरेकडाइं कम्माइं पावगाइं विमणसो सोएण डज्झमाणा परिभूया होंति, सत्तपरिवजिया य छोभासिप्पकला-समय-सत्थ-परिवजिया जहाजायपसुभूया अवियत्ता णिच्च-णीयकम्मोव-जीविणो लोय-कुच्छ-णिजा मोघमणोरहा णिरासबहुला। शब्दार्थ - जहिं - जहाँ जिस कुल में, आउयं - आयु, णिबंधति - बांधते हैं, पावकम्मकारी - पापकर्म करने वाले, बंधवजणसयणमित्तपरिवज्जिया - वे बान्धव जन, स्वजन तथा मित्रादि से रहित होते हैं, अणिट्ठाभवंति - वे किसी को भी प्रिय नहीं होते, अणाइज्जदुविणीया - उनके वचनों का अनादर होता है वे अविनीत होते हैं, कुठाणासण - बुरा स्थान, 'बुरा आसन, कुसेज - बुरी शय्या, कुभोयणाखराब भोजन, असुइणो - अपवित्र, कुसंघयण - शरीर का कुगठन, कुप्पमाण - कुप्रमाण, कुसंठियाबुरी आकृति वाले, कुरुवा - कुरूप, बहुकोहमाणमायालोहा - उनमें क्रोध, मान, माया और लोभ बहुत होता है, बहुमोहा - उनमें मोह अधिक होता है, धम्मसण्ण-सम्पत्त-परिभट्ठा - धर्मबुद्धि और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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