SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय उद्देशक - व्रण के आमर्जन आदि का प्रायश्चित्त ६३ २३. जो भिक्षु अपने शरीर का संवाहन या परिमर्दन करे अथवा संवाहन या परिमर्दन करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। २४. जो भिक्षु अपने शरीर की तेल, घृत, चिकने पदार्थ या मक्खन द्वारा एक बार या अनेक बार मालिश करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। २५. जो भिक्षु अपने शरीर पर लोध्र यावत् पद्मचूर्ण - सुगन्धित द्रव्यविशेष के बुरादे को एक बार या अनेक बार मले - मसले अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ____२६. जो भिक्षु अपने शरीर को अचित्त शीतल या उष्ण जल से एक बार या अनेक बार धोए अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ... २७. जो भिक्षु अपने शरीर को मुख वायु - फूत्कार द्वारा स्फुरित करे या लाक्षारसमहावर आदि से रंजित करे अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करे, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इनसे पूर्ववर्ती सूत्रों में पैरों के आमर्जन, प्रमार्जन आदि का वर्णन आया है, उसी प्रकार का यह वर्णन है। यहाँ पैरों के स्थान पर शरीर का आमर्जन, प्रमार्जन आदि करना सर्वथा निषिद्ध कहा गया है। साधु के व्यक्तित्व का सौन्दर्य तो उसके त्याग-तपोमय, अध्यात्मनिष्ठ कृतित्व में है। शरीर पर दृश्यमान बाह्य मालिन्य तो साधु के देह निरपेक्ष, आत्म-सापेक्ष, उज्ज्वल, पवित्र जीवन का द्योतक है। वह घृणास्पद नहीं है, सम्मानास्पद है। __ मलधारी हेमचन्द्र नामक आगमों के एक प्रसिद्ध टीकाकार हुए हैं। वे अत्यन्त त्यागी, तपस्वी और अध्यात्मयोगी थे। उनका मलधारी विशेषण उनके सर्वथा देहनिरपेक्ष, दैहिक स्वच्छता आदि में अनभिरुचिशील, निरन्तर आत्म-रमण निरत, साधना निष्णात जीवन का प्रतीक था। व्रण के आमर्जन आदि का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पणो कायंसि वणं आमज्जेज वा पमज्जेज वा आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा साइज्जइ॥ २८॥ ... जे भिक्खू अप्पणो कायंनि वणं संवाहेज वा पलिमद्देज वा संवाहेंतं वा पलिमदे॒तं वा साइजइ॥ २९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy