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________________ तृतीय उद्देशक - अभिहत आहार ग्रहण का प्रायश्चित्त कठिन शब्दार्थ - परं - अधिक - आगे, तिघरंतराओ - तीन गृहों - भवनवर्ती तीन प्रकोष्ठ या कमरों से अधिक दूर तक, अभिहडं - अभिहत - लाए हुए, आहट्ट- उसमें से आहृत कर - लेकर, दिज्जमाणं - दीयमान - दिए जाते हुए। भावार्थ - १५. जो भिक्षु तीन गृहों के अन्तर से अधिक दूर - तीन गृहों को पार कर आगे लाए हुए अशनादि चतुर्विध आहार को प्रतिगृहीत करता है - स्वीकार करता है या लेता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - सामान्यतः भिक्षा लेने की विधि यह है, जिस कमरे में भोज्य पदार्थ रखे हों, उसमें खड़े होते हुए या बाहर खड़े होते हुए साधु गृहस्थ द्वारा दिए जाते आहार को ग्रहण करे। दशवैकालिक सूत्र में भिक्षा के प्रसंग में एक विशेष उल्लेख हुआ है - - "गोचरी - भिक्षा के लिए गया हुआ साधु अतिभूमि में - गृहस्थ की मर्यादित भूमि से आगे, उसकी आज्ञा के बिना न जाए। किन्तु कुल की - गृहस्थ परिवार की भूमि-विषयक मर्यादा - सीमा को जानता हुआ, जिस कुल का जैसा आचार हो, उसके अनुरूप वहाँ तक परिमित भूमि में ही जावे*।" . दशवैकालिक सूत्र में भिक्षाचर्या के संदर्भ में जो यह प्रतिपादन हुआ है, उसका आशय यह है, विशेष कुलों, परिवारों या खानदानों में आचार-व्यवहार-विषयक विशेष मर्यादाएँ या परंपराएँ होती हैं। भिक्षार्थ समागत भिक्षु आदि उनके भवन में एक मर्यादित स्थान तक ही जा सकते हैं। मर्यादित स्थान से आगे के स्थान को सूत्र में अतिभूमि कहा गया है। साधु मर्यादित स्थान का उल्लंघन कर अतिभूमि में अनुप्रविष्ट न हो। प्रस्तुत सूत्र में संभवतः इसी बात को ध्यान में रखते हुए स्थान-विषयक मर्यादा या सीमा का निर्धारण किया गया है। गृहस्थ द्वारा तीन गृहों - भवनवर्ती तीन कमरों तक लाकर प्रदीयमान शुद्ध, एषणीय आहार को साधु गृहीत कर सकता है। तीन गृहों, कमरों को पार कर, उनसे आगे लाकर दिए जाते आहार को ग्रहण करना वर्जित है, सदोष है, प्रायश्चित्त योग्य है। भिक्षुः साध्वाचार की मर्यादाओं का सम्यक् पालन करता हुआ गृहस्थ परिवारों की मर्यादाओं का भी उल्लंघन नहीं करता, क्योंकि वैसा होना गृहस्थों को अप्रिय, अमनोज्ञ लगता है। * दशवकालिक सूत्र, अध्ययन - ५.१.२४ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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