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________________ तृतीय उद्देशक - जीमनवार से आहार लेने का प्रायश्चित्त ५७ __ भावार्थ - १३. भिक्षा लेने की बुद्धि से गाथापतिकुल में प्रविष्ट जिस भिक्षु को प्रत्याख्यात - निषिद्ध कर दिया जाए, भिक्षा देने की मनाही कर दी जाए और फिर वह यदि उसी परिवार में पुनः भिक्षार्थ अनुप्रवेश करता है, जाता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - साधु, स्वावलम्बी तथा आत्मार्थी व संयम साधना में पुरुषार्थी होते हैं। वे वहीं से भिक्षा लेते हैं, जहाँ श्रद्धापूर्वक गृहस्थ उन्हें भिक्षा दे। आहार की कठिनाई हो तो भी साधु कहीं भी भिक्षा के संबंध में अविवेकपूर्ण आचरण नहीं करते। कठिनाई को समता और धीरतापूर्वक सहना कर्म-निर्जरा का हेतु है, जो साधु जीवन का लक्ष्य है। __यदि किसी गृहस्थ द्वारा भिक्षार्थ गए हुए साधु को निषिद्ध किया जाए, भिक्षा न दी जाए, पुनः न आने का कहा जाए तो उसके यहाँ साधु को भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए। यदि आहारादि के लोभवश साधु उसके यहाँ पुनः जाने का दुस्साहस करे तो यह प्रायश्चित्त योग्य है, क्योंकि इसमें अनेक दोष आशंकित है। जीमनवार से आहार लेने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू संखडिपलोयणाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा साइज्जइ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - संखडिपलोयणाए - संखडिप्रलोकना - जीमनवार हेतु बनी भोज्य सामग्री का अवलोकन। ..भावार्थ - १४. जो भिक्षु सामूहिक भोज - जीमनवार हेतु बनी भोज्य सामग्री को देखता हुआ - उसे देख-देख कर रुचि के अनुरूप याचित करता हुआ वहाँ से अशन, पान, • खाद्य, स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ___ विवेचन - इस सूत्र में प्रयुक्त 'संखडि' शब्द, जो जीमनवार के अर्थ में है, विद्वानों ने देशी शब्द माना है। देशी शब्द वह होता है, जिसकी कोई व्युत्पत्ति नहीं होती, जो लोकप्रचलित होता है। जिसकी व्युत्पत्ति होती है, उसे यौगिक कहा जाता है, क्योंकि वह उपसर्ग, धातु तथा प्रत्यय आदि के योग से बनता है। अनुसंधान या शोध की दृष्टि से विचार करने पर संखडि शब्द के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है, यह संक्षयी या संखंडि का प्राकृत रूप है। 'सं' उपसर्ग समग्रता, बहुलता या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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