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________________ निशीथ सूत्र पहली बात तो यह है कि विवेकशील साधु भिक्षा लेते समय आहार की मनोज्ञताअमनोज्ञता की तरफ जरा भी ध्यान न दें। निर्दोष एषणीय आहार आवश्यकतानुरूप निःस्पृह भाव से प्राप्त करे। मनोज्ञ-अमनोज्ञ का भेद करने की मानसिकता आसक्तिमूलक है। फिर यदि वैसा अधिक आहार आ जाए, भोजन कर लेने के पश्चात् बचा रहे तो साधु का यह कर्त्तव्य है कि वह उस आहार को समीप में ही उपाश्रय आदि में स्थित साधर्मिक, सांभोगिक, सविवेक उद्यत विहारी और अतिचार रहित चारित्रसेवी मान्य साधुओं को पूछे, आहार लेने को आमंत्रित करे। ... आवश्यकतावश उनके ले लेने के बाद एवं आवश्यकता न हो तो उनकी स्वीकृति पूर्वक वह आहार को परठे। अर्थात् वह अधिक आहार साधर्मिक-साधुओं के उपयोग में आ जाए तो बहुत ही अच्छा हो, फिर यदि बचे तो उसे एकान्त प्रासुक भूमि में परिष्ठापित करे। यह साधु की विवेकपूर्ण चर्या का रूप है। शय्यातर-पिण्ड लेने एवं सेवन करने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू सागारियं पिंडं गिण्हइ गिण्हतं वा साइजइ ॥ ४६॥ जे भिक्खू सागारियं पिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइज्जइ॥ ४७॥ कठिन शब्दार्थ - सागारियं पिंडं - शय्यातर पिंड (आहार आदि)। भावार्थ - ४६. जो भिक्षु शय्यातर पिंड ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। . ४७. जो भिक्षु शय्यातर पिंड का सेवन करता है या सेवन करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - प्राकृत और संस्कृत में अगार या आगार शब्द घर का वाचक है। . "अगारेण, आगारेण वा सहितः सागारः, सागारि, सागारिको वा।" जो घर या आवास स्थान से युक्त होता है, उसका स्वामी होता है, उसे सागार सागारी या सागारिक कहा जाता है। सागारी शब्द में स्वार्थक 'क' प्रत्यय जोड़ देने पर उसके अन्त का दीर्घ ईकार, हृस्व इकार में परिवर्तित हो जाता है, सागारिक रूप बन जाता है। - जिस घर में, आवास स्थान में साधु ठहरा हो उसके स्वामी के लिए 'सांगारिक' शब्द का इन सूत्रों में प्रयोग हुआ है। जैन परंपरा में सागारिक को 'शय्यातर' कहा जाता है।. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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