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________________ - द्वितीय उद्देशक - मनोनुकूल प्रासुक जल पीने एवं मनःप्रतिकूल जल.... ४१ विचरण करने को जो प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका आशय यह है कि इससे साधु के संयमाश्रित, स्वावलम्बितापूर्ण जीवन की गरिमा घटती है। 'समानशीलव्यसनेषु सख्यम्' के अनुसार सख्य, साहचर्य तथा सहगामित्व उन्हीं के साथ उत्तम एवं प्रशस्त होता है, जिनका शील, आचार अपने सदृश हो। वैसा होना ही शोभा पाता है। जीवन में सत्प्रेरणा और सदुत्साह का संचार करता है। मनोनुकूल प्रासुक जल पीने एवं मनःप्रतिकूल जल परराने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अण्णयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुष्फगं पुष्फगं आइयइ कसायं कसायं परिढुवेइ परिट्ठवेंतं वा साइज्जइ॥४३॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णयर - अन्यतर - अनेकविध कतिपय प्रकार युक्त, पाणगजायंपानकजातं - पेयजल - प्रासुक पानी, पडिगाहित्ता - प्रतिगृहीत कर - ग्रहण कर, पुष्फगं - पुष्पक - उत्तम वर्ण, गन्ध, रसयुक्त स्वच्छ जल, आइयइ - पीता है, कसायं - कषाय - दूषित वर्ण, गन्ध, रसयुक्त कलुषित जल, परिढुवेइ - परिष्ठापित करता है - परठता है। ___भावार्थ - ४३. जो भिक्षु कतिपय प्रकार युक्त प्रासुक जल ग्रहण कर उसमें से मनोनुकूलअच्छा-अच्छा, स्वच्छ जल तो पी लेता है और मनःप्रतिकूल - कलुषित-कलुषित जल परठ देता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - साधु के मन में खाद्य एवं पेय पदार्थों के प्रति जरा भी आसक्ति न रहे, केवल यही ध्यान रहे कि वे पदार्थ अचित्त, शुद्ध एवं एषणीय हों। खाने-पीने की वस्तुओं के प्रति वर्ण, गन्ध, रस आदि की मनोज्ञता के कारण यदि साधु में विशेष रुचि या आकर्षण उत्पन्न होता हो तो वह सर्वथा अनुचित है। अत एव वह साधुचर्या में स्वीकृत, निर्दोष पदार्थों को ही ग्रहण करे। स्वाद-अस्वाद का भेद करना उसके लिए सर्वथा त्याज्य है। क्योंकि स्वादिष्ट को गृहीत करना और अस्वादिष्ट की उपेक्षा करना जिह्वा-लोलुपता का सूचक है। शास्त्रों में वैसे पुरुष को रस-गृद्ध कहा गया है। रस-गृद्धता सर्वथा परिहेय है। इस सूत्र में मनोनुकूल जल के पीने और मनःप्रतिकूल जल के परठने का जो वर्णन है, वह साधु की पेय-पदार्थ के प्रति मन में व्याप्त आसक्ति का सूचक है। उसे मनोज्ञ-अमनोज्ञ का भेद न करते हुए शुद्ध, प्रासुक, एषणीय जल के आवश्यकतानुरूप उपयोग का ही ध्यान रखना चाहिए, यही साध्वाचार है। जैसा कि ऊपर के सूत्र में सूचित हुआ है, इसके विपरीत चलना साधु के लिए सदोष है, प्रायश्चित्त है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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