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________________ 'निशीथ सूत्र कठिन शब्दार्थ - णियगवेसियगं - निजगवेषित स्वजन संसार पक्षीय माता, पिता, बन्धु आदि द्वारा गंवेषित - अन्वेषित कर लाया हुआ, पडिग्गहगं - प्रतिग्रह - पात्र, परगवेसियगं - परगवेषित - स्वजन के अतिरिक्त अन्य द्वारा गवेषित - अन्वेषित कर लाया हुआ, वरगवेसियगं - वरगवेषित ग्राम या नगर के प्रधान पुरुष द्वारा अन्वेषित कर लाया हुआ, बलगवेसियगं - बलगवेषित शारीरिक बल या जनबलयुक्त पुरुष द्वारा अन्वेषित लवगवेषित दान का फल आदि कहकर अन्वेषित कर लाया हुआ, लवगवेसियगं कर लाया हुआ । भावार्थ - २७. जो भिक्षु अपने संसार पक्षीय पारिवारिक जनों द्वारा अन्वेषित कर लाया हुआ पात्र धारण करता है रखता है या वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। २८. जो भिक्षु अपने संसारपक्षीय पारिवारिक जनों के अतिरिक्त अन्य जनों द्वारा अन्वेषित कर लाया हुआ पात्र धारण करता है या धारण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ३२ - - - - Jain Education International २९. जो भिक्षु ग्राम या नगर के मुख्य व्यक्ति द्वारा अन्वेषित कर लाया हुआ पात्र धारण करता है अथवा धारण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। - ३०. जो भिक्षु शारीरिक दृष्टि से बलवान या सामाजिक दृष्टि से प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा अन्वेषित कर लाया हुआ पात्र धारण करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ३१. जो भिक्षु किसी के द्वारा दान का फल बताकर अन्वेषित कर लाया हुआ पात्र धारण करता है या धारण करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - जैसा पहले विवेचन हुआ है, साधु स्वावलम्बी होते हैं। वे किसी भी प्रकार से औरों के लिए भार - स्वरूप नहीं होते। अत एव वे सभी कार्य स्वयं ही करते हैं । वस्त्र, पात्र आदि उपधि भी वे स्वयं ही शास्त्रमर्यादानुरूप विधिपूर्वक याचित कर स्वीकार. करते हैं। दूसरों द्वारा अन्वेषित पात्र गृहीत करने में अनेक दोष आशंकित हैं। उपर्युक्त सूत्रों में पात्र धारण करने या लेने के संबंध में जो निरूपण हुआ है, वह इसी अभिप्राय से संबद्ध है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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