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________________ निशीथ सूत्र भावार्थ - ३५. जो साधु किसी गृहस्थ से ली हुई सूई को अविधि - अविवेकपूर्वक उसे लौटाता है या लौटाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रयश्चित्त आता है। ____३६. जो साधु किसी गृहस्थ से ली हुई कतरणी को अविधि से उसे लौटाता है या . लौटाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ___३७. जो साधु किसी गृहस्थ से लिए हुए नखछेदनक को अविधि से उसे लौटाता है या लौटाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। ३८. जो साधु किसी गृहस्थ से लिए हुए कर्णशोधनक को अविधि से उसे लौटाता है। या लौटाते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। . . . विवेचन - दैनन्दिन प्रत्येक कार्य में जागरूक, व्यवस्थित एवं नियमित रहना साधु का कर्तव्य है। वैसा करने से आचार के उत्तम संस्कार सुदृढ बनते जाते हैं। संयम का निर्बाध रूप में, समीचीनतया परिपालन होता है। अत एव इन सूत्रों में सूई आदि उपकरण, जिन्हें साधु: अपने प्रयोजन हेतु गृहस्थ से ले, विवेकपूर्वक उन्हें वापस लौटाए, अच्छी तरह सम्हलाए। जल्दबाजी में, अव्यवस्थित रूप में न देवे। इससे दाता के मन में साधुवृन्द के प्रति आदर और विश्वास बना रहता है। अविवेकपूर्वक वस्तु को लौटाना दोषपूर्ण है। वैसा करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है। नीचे भूमि आदि पर रख कर अथवा हथेली आदि में रख कर उपकरणों को लौटाना विधि पूर्वक लौटाना कहा जाता है। आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सातवें अध्ययन में इस प्रकार की विधि बताई है। समर्थ होते हुए भी अन्य से पात्र परिष्करण आदि कराने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू लाउयपायं वा दारुपायं वा मट्टियापायं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा संठवेइ वा जमावेइ वा अलमप्पणो करणयाए सुहममवि णो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंतं वा साइज्जइ॥ ३९॥ - कठिन शब्दार्थ - लाउयपायं - अलाबु पात्र - तुंबीपात्र, दारुपायं - दारुपात्र - काठ का पात्र, मट्टियापायं - मृत्तिकापात्र - मिट्टी का पात्र, परिघट्टावेइ - निर्मापित कराता है - बनवाता है, ठीक करवाता है, संठवेइ - संस्थापित कराता है - उसका मुख आदि बनवाता है, ठीक करवाता है, जमावेइ - विषम को सम कराता है, अलं - पर्याप्त, करणयाए - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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