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________________ विंश उद्देशक - एकमासिक प्रायश्चित्त : स्थापन - आरोपण २९. चातुर्मासिक प्रायश्चित्त वहन करने वाले अनगार द्वारा (इत्यादि वर्णन पूर्व सूत्रों की भाँति ही यहाँ ग्राह्य है) यावत् आलोचना करने पर न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, जिसे संयुक्त करने पर ( पूर्व प्रायश्चित्त में जोड़ने पर ) चार मास और बीस रात्रि की प्रस्थापना होती है। ३०. चार मास और बीस रात्रि का प्रायश्चित्त वहन करने वाले अनगार द्वारा ( इत्यादि वर्णन पूर्व सूत्रों की भाँति ही यहाँ ग्राह्य है) यावत् आलोचना करने पर न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोषणा का प्रायश्चित्त आता है, जिसे संयुक्त करने पर ( पूर्व प्रायश्चित्त में जोड़ने पर) पाँच मास और दस रात्रि की प्रस्थापना होती है। ३१. पाँच मास एवं दस रात्रि का प्रायश्चित्त वहन किए जाने वाले अनगार द्वारा (इत्यादि वर्णन पूर्व सूत्रों की भाँति ही यहाँ ग्राह्य है) यावत् आलोचना करने पर न कम न अधिक बीस रात्रि की आरोपणा का प्रायश्चित्त आता है, जिसे संयुक्त करने पर (पूर्व प्रायश्चित्त में जोड़ने पर ) छह मास की प्रस्थापना होती है। विवेचन प्रायश्चित्त के संवहन में, निर्वहण में भिक्षु सुव्यवस्थित रूप में, विधिवत् संलग्न रहे ताकि दोष का अपाकरण, उन्मूलन हो सके। इस अपेक्षा से यहाँ प्रायश्चित्त संवाहक विधाओं का वर्णन हुआ है। उसे गहराई से समझकर भिक्षु तदनुरूप मानसिकता के साथ प्रायश्चित्त का संवहन करे। वैसा न करने वाले का प्रायश्चित्त और बढ़ जाता है। • एकमासिक प्रायश्चित्त: स्थापन- आरोपण ४२५ - Jain Education International छम्मासियं परिहारट्ठाणं पट्ठविए अणगारे अंतरा मासियं परिहारट्ठाणंपडिसेवित्ता आलोएज्जा, अहावरा पक्खिया आरोवणा आइमज्झावसाणे सअट्ठ सहेउं सकारणं अहीणमइरित्तं, तेण परं दिवड्डी मासो ॥ ३२ ॥ पंचमासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव दिवड्डो मासो ॥ ३३ ॥ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव दिवड्डो मासो ॥ ३४ ॥ तेमासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव दिवो मासी ॥ ३५ ॥ दोमासियं परिहारट्ठाणं (जहा हेट्ठा) जाव दिवड्डो मासो ॥ ३६ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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