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________________ एकोनविंश उद्देशक - अपात्र को वाचना देने एवं पात्र को न देने का प्रायश्चित्त ४०७ चाहिए। किसी भी अप्रत्याशित, दूषित, असंयममय, भौतिक अनुरागमय स्थिति से तभी बचा जा सकता है, जब अन्तःकरण में संयम, ब्रह्मचर्य एवं वैराग्य का स्रोत अविरल गति से प्रवहमान हो। क्योंकि छेदसूत्रों में ऐसे आशंकित विषयों की चर्चा है, जिनमें यदि भिक्षु की मानसिकता जुड़ जाए तो घोर पतन हो सकता है। वह चर्चा इसलिए है कि भिक्षु वैसी स्थिति से सदैव अपने को बचाए रखे, पृथक् रखे। यह तभी संभव है, जब वह नव ब्रह्मचर्य अध्ययन जैसे विशुद्ध चारित्र पोषक आगमों को स्वायत्त कर चुका हो। __ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वाचना का क्रम पूर्व और पश्चात् के अनुरूप यथावत् रहे। उदाहरणार्थ आचारांग की वाचना पहले तथा सूत्रकृतांग की वाचना बाद में दी जाती है। इसी प्रकार प्रथम श्रुतस्कंध, प्रथम अध्ययन, प्रथम उद्देशक की वाचना पहले एवं उससे आगे द्वितीय आदि की क्रमशः बाद में वाचना देने का विधान है। वाचना में व्यतिक्रम अवांछित है। अपात्र को वाचना देने एवं पात्र को न देने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अपत्तं वाएइ वाएंतं वा साइजइ॥ १९॥ . जे भिक्खू पत्तं ण वाएइ ण वाएंतं वा साइज्जइ॥२०॥ जे भिक्खू अव्वत्तं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ॥ २१॥ जे भिक्खू वत्तं ण वाएइ ण वाएंतं वा साइज्जइ॥ २२॥ कठिन शब्दार्थ - अपत्तं - अपात्र - अयोग्य, पत्तं - पात्र, अव्वत्तं - अव्यक्त (षोडश वर्ष की आयु प्राप्त नहीं करने तक अथवा कुक्षिप्रदेश में रोम नहीं आने तक)। भावार्थ - १९. जो भिक्षु अपात्र को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। २०. जो भिक्षु पात्र को वाचना नहीं देता अथवा नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है। २१. जो भिक्षु अव्यक्त को वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। २२. जो भिक्षु व्यक्त को वाचना नहीं देता अथवा नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार उपर्युक्त रूप में दोष सेवन करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। - विवेचन - इन सूत्रों में आगम वाचना के लिए योग्य तथा अयोग्य भिक्षु के संबंध में चर्चा हुई है। पात्र को वाचना न देना और अपात्र को वाचना देना दोषयुक्त है। 'पतनात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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