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________________ सप्तदश उद्देशक - वाद्यादि ध्वनि के आसक्तिपूर्ण श्रवण का प्रायश्चित्त ३८१ छोटा ढोल, सदुय, प्रदेश या गोलुकी या अन्य इसी प्रकार के किसी वितत वाद्य (पीटकर बजाए जाने वाले वाद्य) के शब्दों को कानों से सुनने हेतु मन में संकल्प करता है (सुनने हेतु जाने की इच्छा करता है) अथवा ऐसा चिन्तन करने वाले का अनुमोदन करता है। २५४. जो भिक्षु वीणा, विपंचि, तूण, वव्वीसग या वीणा आदि के सदृश अन्य तन्तु वाद्य, तुम्बवीणा, झोटक, ढंकुण या अन्य किसी प्रकार के तार वाद्य (झंकृत कर बजाए जाने वाले वाद्य) के शब्दों को कानों से सुनने की प्रतिज्ञा से (कानों से सुनने की इच्छा से) मन में चिन्तन कर उस ओर प्रवृत्त होता है अथवा प्रवृत्ति करने वाले का अनुमोदन करता है। २५५. जो भिक्षु ताल, कंसताल (कांस्य से बना वादिंत्र), लत्तिक, गोहिक, मकरिक (मगरमच्छ की आकृति का वाद्य विशेष), कच्छपी (कच्छप की आकृति के वाद्य विशेष), महतिका, सणालिका या वालिका आदि अन्य प्रकार के घन वाद्यों के शब्दों को कानों से सुनने की इच्छा लिए मन में संकल्प पूर्वक इस ओर प्रवृत्त होता है अथवा प्रवृत्त होने वाले का अनुमोदन करता है। .. ____२५६. जो भिसंख, बांसुरी, वेणु, खरमुही, परिलिस या वेवा आदि अन्य प्रकार के मुसिर वाद्यों को कानों से सुनने हेतु मन में संकल्प करता है (सुनने हेतु जाने की इच्छा करता है) अथवा ऐसा चिन्तन करने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार उपर्युत चिन्तन करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त " विवेचन - मिला मन्द्रयों का प्रयोग संयम की साधना में बल और प्राय प्राप्त भारने हेतु करता है। वह इन्द्रियों के भाग्य विषयों से सर्वथा दूर रहता है, उनमें जरा भी आसपा नहीं होता। स्य, अव्यादि विषय उपस्थित तो होते हैं किन्तु उनमें रागात्मक भाव से वह नहीं प्रति उदासीन या नवम भाव रखता है। :- इन सूत्रों में विविध वाद्य ध्वनियों का आसक्त भाव से श्रवण करना प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थों द्वारा प्रयुज्यमान वाद्यादि अपने-अपने ढंग से अवसरानुकूल बजते रहते हैं, जिनकी ध्वनि भिक्षु के कानों में तो पड़ती ही रहती है, किन्तु वह उनमें रसानुभूति नहीं करता। रसानुभूति रागप्रसूत होती है। वह उन तथाकथित मधुर ध्वनियों से जरा भी विमोहित नहीं होता, आत्मस्थ रहता है। विमोहित होना प्रायश्चित्त का हेतु है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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