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________________ निशीथ सूत्र ७१ - १२६. इसी प्रकार यदि कोई निर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थिनी के पैरों का किसी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से आमर्जन-प्रमार्जन करवाता है या करवाने वाले का अनुमोदन करता है यावत् ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से मस्तक ढकवाता है अथवा ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है इत्यादि समस्त वर्णन (तृतीय उद्देशक की भाँति ) यहाँ पूर्व की भाँति योजनीय है । ३७० इसी प्रकार सूत्र १२७ से १८२ तक निर्ग्रन्थिनी के द्वारा निर्ग्रन्थ का एवं १८३ से २३८. तक निर्ग्रन्थ के द्वारा निर्ग्रन्थिनी का सम्पूर्ण आलापक पूर्ववत् ज्ञापनीय, योजनीय है। विवेचन - दैहिक सज्जा, शृंगार, शोभा साधुत्व के भूषण नहीं वरन् दूषण हैं। जो भिक्षु या भिक्षुणी स्वयं ऐसा करते हैं या अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से करवाते हैं, वह नितांत अशोभनीय है। त्याग, वैराग्यपूर्वक महाव्रतमय जीवन अपनाने वाले भिक्षु ऐसा करते हों, यह संभावित नहीं लगता, किन्तु मानवीय दुर्बलता तथा परिस्थिति विशेष में चित्त में उभरते कालुष्य एवं कामान्य के कारण जीन में ऐसा घटित न हो जाय इस हेतु भिक्षु को सतत जागरूक रहने की प्रेरणा देने के लिए इन सूत्रों में वर्णित तथ्य महत्त्वपूर्ण है। समान आचार युक्त निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी को स्थान न देने का प्रायश्चित्त जे णिग्गंथे णिग्गंथस्स सरिसगस्स अंते ओवासे अंते ओवासं ण देइ ण देतं वा साइज्जइ ॥ २३९ ॥ जा णिग्ग्रंथी णिग्गंथीए सरिसियाए अंते ओवासं अंते ओवासे ण देइ ण देतं वा साइजइ ॥ २४० ॥ 'कंठिन शब्दार्थ - सरिसगस्स सदृश समान आचार युक्त, ओवासे अवकाशस्थान, अंते - अन्तः (अपने उपाश्रय के अन्दर । भावार्थ - २३९. जो साधु उपाश्रय में अवकाश होते हुए भी समान आचार युक्त साधु को (ठहरने हेतु ) स्थान नहीं देता या नहीं देने वाले का अनुमोदन करता है। २४०. जो साध्वी उपाश्रय में अवकाश होते हुए भी समान आचार युक्त साध्वी को (ठहरने हेतु ) स्थान नहीं देती अथवा नहीं देने वाली का अनुमोदन करती है । ऐसा करने वाले साधु या साध्वी को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। Jain Education International - - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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