SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ निशीथ सूत्र ११. जो भिक्षु कुतूहलवश हार यावत् स्वर्णसूत्र पहनता है या पहनने वाले का अनुमोदन करता है। १२. जो भिक्षु कुतूहलवश मृगचर्म से बने वस्त्र, सूक्ष्म वस्त्र, सूक्ष्म व सुशोभित वस्त्र, अजा के सूक्ष्मरोम से निष्पन्न वस्त्र, इन्द्रनीलवर्णी कपास से निष्पन्न वस्त्र, सामान्य कपास से निष्पन्न सूती वस्त्र, गौड देश में प्रसिद्ध या दुगुल वृक्ष से निष्पन्न विशिष्ट कपास का वस्त्र, तिरीड वृक्षावयव से निष्पन्न वस्त्र, मलयगिरि चन्दन के पत्रों से निष्पन्न वस्त्र, बारीक बालोंतंतुओं से निष्पन्न वस्त्र, दुगुल वृक्ष के आभ्यंतरावयव से निष्पन्न वस्त्र, चीन देश में निष्पन्न अत्यन्त सूक्ष्म वस्त्र, देश विशेष के रंगे वस्त्र, रोम देश में बने वस्त्र, चलने पर आवाज करने वाले वस्त्र, स्फटिक के समान स्वच्छ वस्त्र, वस्त्रविशेष कोतवो-वरको, कंबल, कंबलविशेष - खरडग पारिगादि पावारगा, सिन्धु देश के मच्छ के चर्म से निष्पन्न वस्त्र, सिन्धु देश के सूक्ष्म चर्म वाले पशु से निष्पन्न वस्त्र, उसी पशु की सूक्ष्म पशमी से निष्पन्न, वस्त्र, कृष्णमृग-चर्म, नीलमृग-चर्म, गौरमृग-चर्म, स्वर्णरस से लिप्त साक्षात् स्वर्णमय दिखे ऐसा वस्त्र, जिसके किनारे स्वर्णरसरंजित किये हो ऐसा वस्त्र, स्वर्णरसमय पट्टियों से युक्त वस्त्र, सोने के तार जड़े हुए वस्त्र, सोने के स्तबक या फूल जड़े वस्त्र, व्याघ्रचर्म, चीते का चर्म, एक विशिष्ट प्रकार के आभरण युक्त वस्त्र, अनेक प्रकार के आभरण युक्त वस्त्र बनाता है या बनाने वाले का अनुमोदन करता है। १३. जो भिक्षु कुतूहलवश चर्म निर्मित वस्त्र यावत् विविध आभरणों से निर्मित वस्त्रों को धारण करता है या धारण करने वाले का अनुमोदन करता है। १४. जो भिक्षु कुतूहलवश चर्म निर्मित वस्त्र यावत् विविध आभरणों से निर्मित वस्त्रों का परिभोग करता है अथवा परिभोग करने वाले का अनुमोदन करता है। ___ इस प्रकार उपर्युक्त अविहित कार्य करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - भिक्षु द्वारा संयम के साधनभूत देह के परिरक्षण एवं लज्जा निवारण हेतु वस्त्र प्रयोग का विधान है। मनोरंजन, सज्जा तथा प्रदर्शन हेतु उस द्वारा विविध प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग परिवर्जित है, प्रायश्चित्त योग्य है। ऐसा करना संयम के विपरीत कुतूहलजनित मानसिकता का परिचायक है। चैतसिक चांचल्य और अस्थिरता भिक्षु के लिए सर्वथा परिहेय, परिवर्ण्य और निन्द्य है। इस संदर्भ में पहले पर्याप्त विवेचन हो चुका है। भिक्षु की भूमिका में विद्यमान कोई व्यक्ति कौतुकाश्रित प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy