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________________ . षोडश उद्देशक - जुगुप्सित कुलों से आहारादि व्यवहार का प्रायश्चित्त ३५५ भावार्थ - २८. जो भिक्षु जुगुप्सित - निन्दित कुलों से अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य रूप चतुर्विध आहार ग्रहण करता है या ग्रहण करते हुए का अनुमोदन करता है। .. २९. जो भिक्षु जुगुप्सित - निन्दित कुलों से वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादपोंछन प्रतिगृहीत करता है - लेता है अथवा लेने वाले का अनुमोदन करता है। ३०. जो भिक्षु जुगुप्सित - निंदित कुलों से शय्या ग्रहण करता है या ग्रहण करने वाले का अनुमोदन करता है। ____३१. जो भिक्षु जुगुप्सित - निन्दित कुलों में स्वाध्याय करता है अथवा स्वाध्याय करने वाले का अनुमोदन करता है। ३२. जो भिक्षु जुगुप्सित - निन्दित कुलों में स्वाध्याय का समुद्देश करता है - वाचना - देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। ____(इसी प्रकार सूत्रार्थ वाचना देता है ....... प्रशंसा करता है ...... आदि ज्ञातव्य है।) ३३. जो भिक्षु जुगुप्सित - निन्दित कुलों में स्वाध्याय की वाचना देता है या देने वाले का अनुमोदन करता है। .. .. ३४. जो भिक्षु जुगुप्सित - निन्दित कुलों से स्वाध्याय की वाचना लेता है अथवा लेने वाले का अनुमोदन करता है। (जो भिक्षु जुगुप्सित - निंदित कुलों में स्वाध्याय का पुनरावर्तन करता है या पुनरावर्तन करने वाले का अनुमोदन करता है।) . इस प्रकार उपर्युक्त रूप से आचरण करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। . .. विवेचन - 'जुगुप्सित' शब्द जुगुप्सा से बना है। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से जुगुप्सा शब्द का अर्थ बड़ा महत्त्वपूर्ण है। भाषा देश, काल, व्यवहार, सामाजिक व्यवस्था, रीति-नीति इत्यादि के आधार पर परिवर्तित होती रहती है। तद्गत शब्द, जो एक समय किसी विशेष अर्थ के ज्ञापक होते हैं, आगे चलकर उनका अर्थ.सर्वथा परिवर्तित हो जाता है। ऐसा होना कोई आश्चर्य नहीं है। जुगुप्सा शब्द के साथ भी ऐसा ही घटित हुआ है, जिसका भाषाशास्त्रीय दृष्टि से विवेचन करना पाठकों के लिए ज्ञानवर्धक होगा। ___ 'गोप्तुमिच्छा जुगुप्सा' अर्थात् कभी - 'रक्षा करने की इच्छा में' जुगुप्सा का प्रयोग होता था। 'गुप्' धातु और 'तुमुन' प्रत्यय के योग से ‘गोप्तुम्' बनता है, जो इच्छा सूचक है। बदलते हुए समय में जनमानस में इस भाव का उद्रेक हुआ कि जिसकी रक्षा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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