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________________ षोडश उद्देशक - निषिद्ध क्षेत्रों में विहरण विषयक प्रायश्चित्त ३५३ जीवनोपयोगी वस्तुओं की सुलभता होते हुए भी, अभिसंधारेइ - जाने का सोचता है, विरूवरूवाई - विविध प्रकार के - शक, यवन आदि अनेक प्रकार की वेशभूषा युक्त, दसुयायतणाई - डाकुओं के स्थान, मिलक्खूई - म्लेच्छ, पच्चंतियाइं - अनार्य आदि। भावार्थ - २६. जो भिक्षु आहारादि साधुजीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएँ सुलभतायुक्त प्राप्त होने योग्य स्थानों (देशों) के होते हुए भी अधिक समय लगने वाले, लम्बे मार्गयुक्त जनपदों की ओर विहार करने का मन में चिंतन करता है अथवा ऐसा चिंतन करने वाले का अनुमोदन करता है। २७. जो भिक्षु आहारादि साधुजीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएं सुलभतायुक्त प्राप्त होने योग्य स्थानों (देशों) के होते हुए भी उन जनपदों में जिनमें शक, यवन आदि विविध रूपों में डाकू, अनार्य, म्लेच्छ आदि रहते हों, उस ओर विहार करने का मन में संकल्प करता है या ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। ऐसा करने वाले भिक्षु को लघु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - आगमों में भिक्षुओं के आचार, विहार, दिनचर्या इत्यादि पर स्थान-स्थान पर जो विशद विवेचन हुआ है, उसका आशय यह है कि संयम का पालन यथावत् रूप में हो सके। अत एव ऐसी स्थितियों, स्थानों, अवसरों आदि का परिवर्जन किया गया है, जिनमें संयम के सम्यक् निर्वहण में बाधाएँ उपस्थित होना आशंकित हों। भिक्षु जीवन का लक्ष्य स्वपर-कल्याणपरायणता है। स्वकल्याण का तात्पर्य अपने महाव्रतमय जीवन की अक्षुण्ण आराधना है। परकल्याण का तात्पर्य धर्मोपदेश द्वारा जन-जन को व्रतमूलक, अध्यात्मप्रवण जीवन की ओर प्रेरित करना है। इन दोनों में ही उसका पहला लक्ष्य आत्मश्रेयस् है। उसमें जरा भी बाधा न आने देते हुए जितना लोककल्याण वह साध सके, साधे। संयमानुप्राणित जीवन की कीमत पर वह कोई भी ऐसा कार्य करने का अधिकारी नहीं है। इन सूत्रों में जो वर्णन दिया है, वह इसी भाव का द्योतक है। भिक्षु संयम निर्वाह की उपयोगिता, साधुजीवनोचित उपकरणों की मूल्यता, मर्यादानुगत विहारचर्या की अनुकूलता इत्यादि की जहाँ प्राप्यतः हो, यात्रा प्रवास हेतु वैसे ही स्थानों का चयन करे। वैसे स्थान सुविधापूर्वक प्राप्य हैं, ऐसा होते हुए भी जो उन देशों की ओर प्रयाण करना चाहते हैं, जहाँ पहुँचने में अटवी सदृश घनघोर मार्ग हों अथवा ऐसे देशों में जाना चाहते हों, जहाँ अनार्य, म्लेच्छ तथा विविध प्रवंचनापूर्ण वेशधारी दस्युवृन्द रहते हों, संयम की दृष्टि से दोषपूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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