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________________ ३४८ निशीथ सूत्र अनुसार अटवी, अरण्य, विपिन, गहन, कानन तथा वन - ये शब्द समानार्थक हैं, सामान्यतः वन या जंगल के वाचक हैं, किन्तु तरतमता की दृष्टि से इनमें कुछ अन्तर भी माना जाता है। जो जंगल ग्राम, नगर आदि से बहुत दूर होता है, उसे अरण्य कहा जाता है। जो ग्राम, नगर आदि के निकट होता है, उसे वन कहा जाता है। लम्बा घनघोर जंगल जिसे पार करने में बहुत दिन लगते हों, जहाँ चोर डाकू आदि का भय हो, बीच में कोई बस्ती न हो, उसे अटवी कहा जाता है। "अरण्ये भवा आरण्यकाः " - जो अरण्य या वन में ही रहते हों, वन ही जिनका स्थायी निवास हों, वे आरण्यक कहे जाते हैं। वैदिक परंपरा में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास - ये चार. आश्रम माने गए हैं अर्थात् मनुष्य के जीवन को सौ वर्ष का मानते हुए पच्चीस-पच्चीस वर्ष के चार विभागों में उसे बांटा गया है। तदनुसार गृहस्थ आश्रम को पूर्ण कर व्यक्ति अरण्य में चला जाता है। वहाँ धर्माराधना में रत रहता हुआ अपने को संन्यास के योग्य बनाता है, कंद, मूल, फल आदि का भोजन करता है। ऐसे अरण्यवासी साधक वानप्रस्थी या आरण्यक कहे जाते हैं। उनके लिए अध्ययन करने योग्य जो विशेष ग्रन्थ रचित हुए, उन्हें भी 'आरण्यक' कहा जाता है। इन सूत्रों में आरण्यक आदि जिन चार प्रकार के लोगों से आहार लेना जो प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है, उसका आशय यह है कि उन द्वारा वनस्पतिकाय की विराधना का . क्रम प्रायः चलता ही रहता है। इसके अतिरिक्त जो वन में गए हुए हों, जा रहे हों, वापस लौट रहे हों, उनसे आहार लेना भी इसलिए दोषयुक्त है कि वन में मार्ग आदि भूल जाएं, अनुमान से अधिक दिन लग जाएं, उनके पास विद्यमान आहार आदि कम पड़ जाए या समाप्त हो जाए तो उनके क्षुधापीड़ित होने की आशंका बनी रहती है। · देने वालों की जीवविराधनामूलक प्रवृत्ति का सातत्य और परिस्थितिवश आहारादि की कमी हो जाने से उनके संकट में पड़ने की आशंका को देखते हुए उनसे आहार लेना जो दोषपूर्ण बतलाया गया है, वह वास्तव में बड़ा ही दूरदर्शितापूर्ण है। चारित्र रत्न के संबंध में विपरीत कयन विषयक प्रायश्चित्त जे भिक्खू वसुराइयं अवसुराइयं वयइ वयंतं वा साइजइ॥ १४॥ जे भिक्खू अवसुराइयं वसुराइयं वयइ वयंतं वा साइजइ॥ १५॥ कठिन शब्दार्थ - वसुराइयं (बुसिराइयं) - वसुराजिक - चारित्र रूपी रत्न से सुशोभित । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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