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________________ . निशीथ सूत्र विवेचन - इन सूत्रों में अंगादान शब्द का एक विशेष अर्थ में प्रयोग हुआ है। "अंगानाम्, उपलक्षणेन उपांगानाम् च, आदानम् - उत्पत्तिः, उद्भवो वा" - इस व्युत्पत्ति के अनुसार अंगों तथा उपांगों की उत्पत्ति को अंगादान कहा जाता है। इस विग्रह के अनुसार यह षष्ठी तत्पुरुष समास है। मस्तक, हृदय, उदर, पीठ, दो भुजाएँ तथा दो जंघाएँ - ये आठ अंग कहे गए हैं। . कान, नासिका, नैत्र, पिंडलियाँ, हाथ, पैर, नख, केश, मूंछ, दाढी, अंगुलियाँ, हथेली, पगथली तथा इनके समीपवर्ती भाग उपांग कहे गये हैं। अंगादान का बहुब्रीही समास के रूप में "अंगानाम् उपलक्षणेन उपांगानाम् च, उत्पत्तिः, उद्भवो वा येन भवति, तद् अंगादानम्।” अर्थात् जिससे अंगों. और उपांगों की या अंगोपांगमय शरीर की उत्पत्ति होती है, उसे अंगादान कहा जाता है। __इस मैथुनी सृष्टि का आधार पुरुष और स्त्री है। उनके संसर्ग से देहोत्पत्ति होती है। इस दृष्टि से यहाँ अंगादान का आशय पुरुष की जननेन्द्रिय है। ___ इन सूत्रों में वेद-मोहोदय से जनित काम-विकारमय कुचेष्टाओं से बचे रहने हेतु साधुओं को सजग किया गया है। जिन कुत्सित, कामुक प्रवृत्तियों का इन सूत्रों में वर्णन हुआ है, वे अत्यन्त निन्दनीय हैं, प्रायश्चित्त योग्य हैं, यह ध्यान में रखते हुए साधु ऐसे घृणास्पद, जघन्य कुकर्म में कभी भी प्रवृत्त न हो, इन सूत्रों का यही आशय है। जे भिक्खू अंगादाणं अण्णयरंसि अचित्तंसि सोयंसि अणुप्पवेसेत्ता सुक्पोग्गले णिग्याएइ णिग्घायंतं वा साइज्जइ ॥९॥ १५ कठिन शब्दार्थ - अण्णयरंसि - अन्यतर - किसी में, अचित्तंसि - अचित्त, सोयंसिछिद्र में, अणुप्पवेसेत्ता - अनुप्रविष्ट कर - डाल कर, सुक्कपोग्गले - वीर्य-पुद्गलों को, णिग्याएइ. - निष्क्रान्त करता है - निकालता है। भावार्थ - ९. जो साधु किसी अचित्त छिद्र में अंगादान को अनुप्रविष्ट कर शुक्रपुद्गलों को निष्कासित करता है, वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरुमासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इस सूत्र में जिस उद्दाम कामुक-वृत्ति-जनित कुकर्म का उल्लेख हुआ है, वह अब्रह्मचर्य-सेवन का निकृष्ट रूप है, अत्यंत निन्दनीय और त्याज्य है। साधु ब्रह्मचर्य के तीव्रतम भाव में अपने मन को सदा लगाए रहे, जिससे इस प्रकार के नीच कर्म में उसका मन कभी जाए ही नहीं। सूत्र में आए हुए 'अचित्त स्रोत' का आशय 'अचित्त' स्थान समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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