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________________ पंचदश उद्देशक - अकल्प्य स्थानों में मल-मूत्रोत्सर्ग-परिष्ठापन विषयक.... ३३१ (सूत्र १६ से ७१) के समान पूरा आलापक जानना यावत् जो जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ से ग्रामानुग्राम विहार करते हुए अपना मस्तक ढंकवाता है या ढंकवाने वाले का अनुमोदन करता है। (उसे लघुचौमासी प्रायश्चित्त आता है।) विवेचन - भिक्षु अपने समस्त दैहिक कार्य स्वयं करता है। वैसा करने में असमर्थ होने पर वह अपने सांभोगिक भिक्षुओं से सहयोग लेता है। क्योंकि सांभोगिक भिक्षु आवश्यकता पर एक-दूसरे के सहयोगी होते हैं। इसी से उनका संयममय जीवन निर्बाध, निशंक रूप में, विशुद्ध रूप में चलता रहता है। भिक्षु अन्यतीर्थिक - तथाकथित साधु, संन्यासी, तापस, श्रमण एवं गृहस्थों से किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं लेता। क्योंकि वह परावलम्बन है, जो भिक्षुओं के लिए अग्राह्य, अस्वीकार्य है। ... अग्राह्य को गृहीत करना, अपनाना, अस्वीकार्य को स्वीकृत करना दोषपूर्ण है, प्रायश्चित्त योग्य है। अकल्प्य स्थानों में मल-मूत्रोत्सर्ग-परिष्ापन विषयक प्रायश्चित्त . जे भिक्खू आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा उच्चारपासवणं परिद्ववेइ परिढुवेंतं वा साइज्जइ॥ ६९॥ ___ जे भिक्खू उजाणंसि वा उजाणगिहंसि वा उज्जाणसालंसि वा णिज्जाणंसि वा णिज्जाणगिहंसि वा णिज्जाणसालंसि वा उच्चारपासवणं परिवेइ परिवेंतं वा साइजंइ॥ ७०॥ जे भिक्खू अटुंसि वा अट्टालयंसि वा चरियंसि वा पागारंसि वा. दारंसि वा गोपुरंसि वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेइ परिट्ठवेंतं वा साइज्जइ॥ ७१॥ जे भिक्खू दगंसि वा दगमग्गंसि वा दगपहंसि वा दगतीरंसि वा दगठाणंसि वा उच्चारपासवणं परिट्टवेइ परिहवेंतं वा साइज्जइ॥७२॥ जे भिक्खू सुण्णगिहंसि वा सुण्णसालंसि वा भिण्णगिहंसि वा भिण्णसालंसि वा कूडागारंसि वा कोट्ठागारंसि वा उच्चारपासवणं परिढवेइ परिवेंतं वा साइज्जइ॥७३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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