SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०८ निशीथ सूत्र गणि की आज्ञा बिना अतिरिक्त पात्र अन्य को देने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू अइरेगपडिग्गहं गणिं उदिसिय गणिं समुद्दिसिय तं गणिं अणापुच्छिय अणामंतिय अण्णमण्णस्स वियरइ वियरंतं वा साइजइ॥५॥ ___ कठिन शब्दार्थ - अइरेग पडिग्गहं - प्रमाण से अधिक पात्र, गणिं - गणि - गणाधिपति को, उद्दिसिय - उद्दिष्ट - लक्षित कर, समुद्दिसिय - समुद्दिष्ट कर, अणापुच्छियपूछे बिना, अणामंतिय - परामर्श किए बिना, वियरइ - वितरित करता है - देता है। भावार्थ - ५. जो भिक्षु गणि को उद्दिष्ट, समुद्दिष्ट कर गृहीत किया हुआ अतिरिक्त - प्रमाण से अधिक पात्र गणि को पूंछे बिना, उनसे मंत्रणा या परामर्श किए बिना अन्य (साधु) को देता है अथवा देने वाले का अनुमोदन करता है, उसे लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। . विवेचन - जैसा पहले व्याख्यात हुआ है, भिक्षु को धातु के पात्र रखना नहीं कल्पता। वह काठ, तुम्बिका या मिट्टी के पात्र ही ले सकता है। इसमें भी मुख्यतः काठ के और तुम्बिका के पात्र ही काम में आते हैं। क्योंकि उठाने ले जाने आदि में वे हल्के होते हैं। मिट्टी के पात्र भी प्रयोग में लिए जाते हैं, किन्तु कम। ___काठ और तुम्बी के पात्र सर्वत्र सुलभ नहीं होते, क्योंकि गृहस्थ इनका विशेष प्रयोग नहीं करते, बहुत ही कम काम में लेते हैं। आवश्यकता वश यदि गणाधिपति का निर्देश हो तो भिक्षु प्रमाण से अधिक पात्र भी ले सकता है। तब उसके लिए यह आवश्यक है कि वह गणि को निवेदित करे, उनके समक्ष पात्र प्रस्तुत करे। उनसे परामर्श किए बिना, उनका आदेश पाए बिना वह अन्य किसी साधु को पात्र न दे। यह गण की अनुशासनात्मक व्यवस्था है। गणी को पूछे बिना स्वयं अपनी इच्छा से अन्य को पात्र देना गण की नियमानुवर्तिता को भंग करना है। ___ उपर्युक्त सूत्र में आए हुए उद्देश, समुद्देश आदि शब्दों का आशय इस प्रकार समझना चाहिए एक गच्छ में अनेक आचार्य, अनेक वाचनाचार्य, प्रव्राजनाचार्य आदि हों तो सामान्य रूप से आचार्य का निर्देश करके पात्र लाना उद्देश है तथा किसी आचार्य का नाम निर्देश करके पात्र लाना समुद्देश है। अतिरिक्त लाये गए पात्र आचार्य की सेवा में समर्पित करना, देना है और निमंत्रण करना, निमंत्रण है। अन्य किसी को देना हो तो उसके लिए आज्ञा प्राप्त करना पृच्छना है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy