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________________ त्रयोदश उद्देशक - मंत्र-तंत्र-विद्यादि विषयक प्रायश्चित्त विवेचन - कौतुक कर्म आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार समझना चाहिए कौतुक कर्म - मृतवत्सा आदि को श्मशान या चौराहे आदि में स्नान करना । सौभाग्य आदि के लिये धूप, होम आदि करना । दृष्टि दोष से रक्षा के लिये काजल का तिलक करना । भूतीकर्म शरीर आदि की रक्षा के लिये विद्या से अभिमंत्रित राख से रक्षा पोटली बनाना या भस्मलेपन करना । पसिण मन्त्र या विद्या बल से दर्पण आदि में देवता का आह्वान करना व प्रश्न ! पूछना। - Jain Education International परिणापसिण - मन्त्र या विद्या बल से स्वप्न में देवता के आह्वान द्वारा जाना हुआ शुभाशुभ फल का कथन करना । लक्षण - पूर्व भव में उपार्जित अंगोपांग आदि शुभ नामकर्म के उदय से शरीर हाथपांव आदि में सामान्य मनुष्य के ३२, बलदेव वासुदेव के १०८ तथा चक्रवर्ती या तीर्थंकर के १००८ बाह्य लक्षण होते हैं, अन्य अनेक आंतरिक लक्षण भी हो सकते हैं। ये लक्षण रेखा रूप में या अंगोपांग की आकृति रूप होते हैं तथा ये लक्षण स्वर एवं वर्ण रूप में भी हो सकते हैं। शरीर का मान उन्मान व प्रमाण ये भी शुभ लक्षण रूप होते हैं। व्यंजन - उपयुक्त लक्षण तो शरीर के साथ उत्पन्न होते हैं और बाद में उत्पन्न होने वाले व्यंजन कहे जाते हैं। यथा- तिल, मस, अन्य चिह्न आदि । विद्यामन्त्र - जिस मन्त्र की अधिष्ठायिका देवी हो वह 'विद्या' कहलाती है और जिस मन्त्र का आधिष्ठायक देव हो वह 'मन्त्र' कहलाता है । अथवा विशिष्ट साधना से प्राप्त हो वह 'विद्या' 'और केवल जाप करने से जो सिद्ध हो वह 'मंत्र' कहा गया है। योग - वशीकरण, पादलेप, अंतर्धान होना आदि 'योग' कहे जाते हैं । ये योग विद्यायुक्त भी होते हैं और विद्या के बिना भी होते हैं। साधनामूलक विद्या के दो रूप हैं। एक का लक्ष्य कर्मक्षयपूर्वक बहिरात्मभाव से अन्तरात्मभाव में होते हुए परमात्मभाव का अधिगम करना है। वह सात्त्विक, उज्ज्वल या पावन विद्या है। दूसरा वह रूप है, जिसका लक्ष्य कुत्सित, सावद्य, मलीमस प्रयोगों द्वारा अपना भौतिक अभीसिप्त साधना है। मंत्र, तंत्र, यंत्र आदि सभी वाममार्गी उपक्रम इसमें सम्मिलित हैं। इसको अविद्या कहा गया है। वह विद्या तो है किन्तु आत्मा का पतन कराती है, इसलिए अविद्या है। सद्गृहस्थ को भी ऐसी विद्या की साधना नहीं करनी चाहिए क्योंकि वैसा पुरुष नरकगामी होता है। २९१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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