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________________ २८६ निशीथ सत्र हुए भी) खड़े होने, सोने या बैठने आदि क्रियाएँ करता है अथवा वैसा करते हुए का अनुमोदन करता है। ___११. जो भिक्षु भलीभाँति नहीं बंधे हुए, सम्यक् स्थापित न किए हुए कंपनयुक्त, अस्थिर स्कंध, फलक, मंच, मंडप, घर के ऊपरवर्ती खुले तल, प्रासाद, जीर्ण हवेली या अन्य इसी प्रकार के खुले आकाशीय स्थानों पर (जानते हुए भी) खड़े होने, सोने या बैठने आदि क्रियाएँ करता है अथवा ऐसा करने वाले का अनुमोदन करता है। . इस प्रकार उपर्युक्त रूप में आचरण करने वाले भिक्षु को लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। . विवेचन - 'सव्वओ पमत्तस्स भयं सव्वओ अप्पमत्तस्स पत्थि भयं'' - इस उक्ति के अनुसार प्रमाद, असावधानी, अजागरूकतायुक्त व्यक्ति को सर्वत्र भय ही भय . है। प्रमादशून्य को कहीं भी भय नहीं। यह सूत्रवाक्य बड़ा महत्त्वपूर्ण है। भिक्षु इसे स्मृति में रखता हुआ, कार्मिक दृष्टि से इसका अनुसरण करता हुआ समुद्यत रहे, यह आवश्यक है। वैसा करता हुआ वह अपनी संयमयात्रा का निर्वाह बड़ी ही शान्ति, सुख और अन्तस्तुष्टि के साथ कर सकता है। वैसा होने में जो भी बाधकताएँ आशंकित हैं, उन्हें ध्यान में रखते हुए: आगमों में स्थान-स्थान पर सावधानी बरतने का निर्देश किया गया है। . उपर्युक्त सूत्रों में ऐसे ही विषयों को लेते हुए भिक्षु के लिए अनावृतं - आवरण रहित विविध प्रकार के ऊँचे स्थानों पर खड़े होना आदि को दोषपूर्ण बताया गया है, क्योंकि ऐसा करने के पीछे कोई विशेष धार्मिक प्रयोजन नहीं होता। यह तो मात्र कुतूहलजनक प्रतीत होता है, जिसे हास्यास्पद से भिन्न नहीं कहा जा सकता। वैसा करता हुआ भिक्षु थोड़ी भी असावधानी होने पर नीचे गिर सकता है, जिससे पृथ्वीकाय आदि जीवों की विराधना होती है, जिससे उसका अहिंसा महाव्रत व्याहत होता है। उच्च स्थान से गिर पड़ने पर उसे स्वयं भी चोट लग सकती है, अस्थिभंग (Fracture) हो सकता है, जिससे संयम जीवितव्य निरापद नहीं रहता। . शिल्पकलादि शिक्षण विषयक प्रायश्चित्त .. . जे भिक्खू अण्णउत्थियं वा गारस्थियं वा सिप्पं वा सिलोगं वा अट्ठावयं वा कक्कडगं वा वुग(गा )गहंसि वा सलाहं वा सलाहत्थयंसि वा सिक्खावेइ सिक्खावेंतं वा साइजइ॥ १२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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