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________________ एकादश उद्देशक - अयोग्य से वैयावृत्य कराने का प्रायश्चित्त २४९ प्रविष्ट होने वाले व्यक्ति में आत्मबल, धृति, सहिष्णुता, तितिक्षा एवं विरक्ति जैसे उज्ज्वल भाव हों, वैसा पुरुष ही महाव्रतों की आराधना में, संयम साधना में सफल होता है, अपना तथा औरों का कल्याण करता है। अतः यह आवश्यक है कि दीक्षार्थी का भलीभाँति परीक्षणनिरीक्षण करते हुए, उसकी योग्यता-अयोग्यता को परखते हुए उसे योग्य जानकर ही प्रव्रजित करना चाहिए। अयोग्य दीक्षार्थी संसार पक्षीय दृष्टि से चाहे अपने परिवार का हो, परिवार से भिन्न हो, श्रावक हो, श्रावकेतर अन्यतीर्थिक हो - कोई भी क्यों न हो, उसे प्रव्रजित नहीं करना चाहिए। वैसा करना दोषयुक्त है, प्रायश्चित्त योग्य है। . परीक्षण-निरीक्षण करने पर भी यदि दीक्षार्थी की किसी अयोग्यता की ओर ध्यान न जाए तथा उसे दीक्षित कर लिया गया हो एवं बाद में यह ज्ञात हो कि दीक्षित व्यक्ति योग्य नहीं है तो उसे बड़ी दीक्षा नहीं देनी चाहिए। यदि कोई भिक्षु ऐसा करता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है। साधु जीवन में संप्रविष्ट अयोग्य व्यक्ति अपना तो अहित करता ही है, साधु संघ की भी उससे अपकीर्ति होती है, पवित्र धार्मिक वातावरण कलुषित होता है। अयोग्य से वैयावृत्य कराने का प्रायश्चित्त जे भिक्खू णायगेण वा अणायगेण वा उवासएण वा अणुवासएण वा अणलेण वेयावच्चं कारावेइ कारावेंतं वा साइजइ॥ ८९॥ , . भावार्थ - ८९. जो भिक्षु अयोग्य स्वजन या परजन, उपासक या अनुपासक दीक्षित भिक्षु से वैयावृत्य - सेवा-परिचर्या कराता है या कराते हुए का अनुमोदन करता है, उसे गुरु चौमासी प्रायश्चित्त आता है। विवेचन - इस सूत्र में अयोग्य से सेवा कराना दोषयुक्त, प्रायश्चित्त योग्य बतलाया गया है। यहाँ प्रयुक्त अयोग्य शब्द एक विशेष भाव का द्योतक है, जो साधुचर्या के नियमों को तो भलीभाँति योग्यतापूर्वक पालता है, किन्तु वैयावृत्य या सेवा-परिचर्या के लिए जैसी योग्यता, कुशलता, सक्षमता चाहिए, वैसी उसमें नहीं होती। उसे वैयावृत्य की दृष्टि से अयोग्य कहा जाता है। - जो भिक्षु सेवा की दृष्टि से योग्य नहीं होता, उससे वैयावृत्य कराना, सेवा लेना अपने लिए और उसके लिए - दोनों के लिए ही असुविधाजनक एवं कष्टप्रद होता है। सेवा लेने वाले को समचित सेवा प्राप्त नहीं होती तथा देने वाले के मन में आकुलता उत्पन्न होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004200
Book TitleNishith Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nishith
File Size9 MB
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